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   shakespeare story in hindi - Timons of Athens

shakespeare story in hindi - Timons of Athens


यह कहानी एक ऐसे फिजूलखर्ची राजा की है, जो अपना सब कुछ अपने चापलुसो पे उडा देता है, और अतं मे जब उसके पास कुछ नहीं बचता , तो वह अपने  चापलुसो से मदद मागनें जाता है पर सब झुठ बोल कर राजा की मदत से इनकार कर देते है। तो आगे पङे की राजा ने उन्हे कैसे सबक सिखाया ।

नमस्कार दोस्तो आज की कहानी का शीर्षक   Timons of Athens  यह रचना  महान लेखक विलियम शेक्सपीयर की  है । 

तो कहानी को शुरू करते है ।

वह बनिया क्या, जो कंजूस न हो तथा वह राजा ही क्या, जो फिजूलखर्च न हो  तिमन भी राजा था तथा फिजूलखर्च इतना कि कुछ पूछो ही मत। जहां एक खर्चना होता, वहां हजार और जहां हजार खर्चने होते, वहां लाख। फिर भी उसके दिल में यह आरजू शेष रह जाती कि परमात्मा ने उसे दौलत लटाने के लिए दो ही हाथ क्यों दिए सौ क्यों नहीं दिए?

 वह लुटाता, लुटाता तथा इतना लुटाता कि लेने वाले थक जाते, किंंतु तिमन बस हैं,करने का नाम तक न लेता। अंधा क्या चाहे, दो आंखें! ऐसे दरियादिल राजा को पाकर खुशामदियों की भी खूब बन आई। जिन्हें कभी भरपेट रोटी भी नसीब नहीं होती थी, वही आज तिमन के दरबारी बने बैठे थे। जो जितना ज्यादा फिजूलखर्च था, राजा ने उसे
'उदार हृदय' कहकर उतना ही बड़ा अधिकार दरबार में दे रखा था।

उदाहरण के लिए उसने एक ऐसे आदमी को प्रधानमंत्री बना रखा था, जो साठ सेठों का ऋणी था, सत्तर व्यापारियों के ऋण से दबा हुआ था तथा निन्यानवें नाइयों से मुफ्त हजामत करवा चुका था तथा अभी तक किसी को एक कौड़ी भी न दी थी। 

इसी तरह उसने अपना उप-प्रधानमंत्री एक ऐसे आदमी को नियुक्त कर लिया था, जिसमें यह खास गुण था कि वह सदा राजा साहब की मनपसंद बात कह सकता था। उदाहरण के लिए जब वह पहली बार राजा साहब के दरबार में आया तो उसने लंबा सलाम करके राजा तिमन की तारीफ में यह छंद गाकर सुनाया था-

'मोटर भागे, गाड़ी भागे।
राजा तिमन सभी से आगे॥
'बड़ा' कहा अपने को जिसने।
राजा तिमन उसी से तिगुने॥
एक का मन होता सब का।
किंतु हमारा शाह तिमन का॥
तिमन नाम ही तीनों मनों का।
क्या कहना है शेष गुणों का।
सबसे बड़े तिमन हैं दाता।
कोई बही, न कोई खाता॥
सो-सोकर सब दानी जागे।
दाता तिमन सभी से आगे॥'

इस छंद का सुनना था कि राजा साहब 'वाह-वाह' पुकारते हुए सिंहासन से उठ खड़े हुए। अपने हाथ से उसी समय उसे उप-प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया। उनकी तो यह उदारता की एक आम घटना है। ऐसी बीसियों घटनाएं हर दिन उनके दरबार में हुआ करती थीं। बीसियों भिखारी दरबारी बनाए जाते तथा सैकड़ों फटेहालों को इनाम देकर
उन्हें निहाल किया जाता। 

एक बार कौड़ीमल ने आकर दरबार में फरियाद की- "महाराज! मैं सेठ करोड़ीमल की बेटी से प्यार करता हूं तथा चाहता हूं कि उसी के साथ मेरा ब्याह हो। सेठ को लड़की भी मुझे चाहती है, मगर हम दोनों का ब्याह होने में सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि मेरे पास सेठ करोड़ीमल जितना पैसा नहीं। 

उसकी यही शर्त है कि अपनी लड़की का विवाह वह मेरे साथ तभी करने को राजी हो सकता है, जबकि मेरे पास भी एक बंगला हो, गाड़ी हो, नौकर-चाकर हों तथा बैंक में उतना ही रुपया जमा हो, जितना कि खुद सेठ का जमा है।"

कौड़ीमल की यह बात सुनते ही राजा साहब चिल्ला पड़े- "वाह रे शेर दिल! आदमी हो तो ऐसा ! तेरे जैसे उदार व्यक्तियों के लिए तो मैं राज्य का सारा खजाना लुटाने को तैयार हूं। जा! खजानची से तीन लाख रुपए ले जा तथा आज ही जाकर सेठ करोड़ीमल की बेटी से विवाह निश्चित कर आ। जब तेरा विवाह हो जाए तो मेरे पास आना। तेरे जैसे उदार व्यक्तियों की मुझे दरबार में बड़ी आवश्यकता है।"

ऐसे कई कौड़ीमल राजा की कृपा से करोड़ीमल बन चुके हैं, मगर अब राजा का खजाना खाली होता जा रहा था। एक दिन जब राजा तिमन ने एक परदेसी को बिल्कुल सफेद घोड़ा भेंट करने के उपलक्ष्य में पचास हजार रुपए पुरस्कार में देने की आज्ञा दी तो कोषाध्यक्ष राजा के दरबार में उपस्थित हुआ तथा बोला- "महाराज! राज्य का कोष तो खाली हो चुका है। इस परदेसी को पचास हजार रुपए कहां से दिए जाएं?"

राजा अभिमान के साथ बोला- "तो यह शाही जायदाद किसलिए पड़ी है? जागीर की कुछ भूमि बेच दी जाए और उस रुपए में से इस परदेसी को इनाम दिया जाए।

कोषाध्यक्ष ने और भी नम्र लहजे में कहा- "अन्नदाता! शाही जागीर का अधिकतर भाग तो पहले ही लोगों को दान में दिया जा चुका है तथा जो थोड़ा-बहुत शेष है, उसे बेचकर इतना धन भी हासिल नहीं हो सकता, जितने से इस परदेसी के इनाम की राशि भी पूरी की जा सके।"
तिमन चोंककर बोला-"तो क्या सरकारी जायदाद भी बिक चुकी है?"
कोषाध्यक्ष ने कहा- "हां महाराज!"
अब तिमन ने इजाजत दी-"जाओ! मेरा नाम लेकर राज्य के किसी सेठसे रुपया उधार ले आओ तथा इस परदेसी को पुरस्कारदकर खुश करो।"
कोषाध्यक्ष राजा की सूचना लेकर एक-एक दरबारी और एक-एक सेठ के द्वार पर पहुंचा, मगर जिसने भी सना कि राजा दीवालिया हो गया है, उसी ने कोई न कोई बहाना बनाकर उधार देने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी।

सेठ लूशियस ने दरवाजे पर खड़े-खड़े कोषाध्यक्ष से कह दिया--"भाई ! तुम आए भी तो काफी देर से। कल सांझ को ही मैं तीन करोड़ का एक सादा कर चुका हूं, इसलिए अब राजा साहब की मदद करने को मेरे पास चादी का एक रुपया भी नहीं है। " मेरी तरफ से राजा साहब को निवेदन कर देना कि उनके मुझे पर बहुत उपकार हैं, मगर
इस समय मैं उनकी मदद करने में बिल्कुल असमर्थ हूं।"

एक दूसरे अमीर ने भी, जिसे राजा तिमन ने एक कहार की हालत से उबारकर लाखों का मालिक बनाया था तथा जिसे वह स्नेह से 'बेटा' कहकर पुकारा करते थे,कोषाध्यक्ष की दाढ़ी को हाथ लगाकर उसके कान में कह डाला-
राजा साहब से कह देना कि रईस तो घर पर मिले ही नहीं। परदेस के दौरे पर गए हुए हैं। मालूम नहीं कब लौटेंगे।"

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, कोषाध्यक्ष जितने भी शहरियों के पास रुपए का सवाल लेकर गया, उतनों ने ही उसे साफ जवाब दिया तथा वह बेचारा निराश होकर राजा के पास आकर बोला-"महाराज ! रेत को निचोड़ने से तेल नहीं निकल सकता। मैं एक-एक नागरिक के पास गया था, जो आपने अपने घनिष्ठ दोस्त बताए थे, मैं उनके पास भी गया।"

मानो राजा पर किसी ने घड़ों पानी उड़ेल दिया हो। वह कुछ खिसियाकर बोला- 'तो सबकी आंखें बदल गईं क्या?"

कोषाध्यक्ष ने आंखें नीचे करके कहा- 'महाराज! यह सब दिनों का फेर है।" राजा खून का चूंट पीकर रह गया। उसके जी में आया कि अभी हाथ में कटार लेकर निकल पड़े और एक-एक अमीर की छाती में घुसेड़कर पूछे- "बताओ कृतघ्नों, लालची कुत्तों! क्या मेरे अहसानों का यही बदला है? वे तुम्हारी खुशामदेव तारीफ भरे गीत और वह मेरी वाहवाही, क्या वे सब मुझसे मेरी संपत्ति लूटने के ही हथकंडे थे तुम्हारे। तुमने रिस-रिसकर मेरा खून चूसा है, आज मैं इस कटार से उस लहु की नदी बहाना चाहता हूं। कृतघ्नता से भरे खून का स्थान हृदय-सी कोमल वस्तु में
नहीं होता।"

इस तरह बड़बड़ाता हुआ राजा अपने आसन से उठ खड़ा हुआ, मगर थोड़ी देर बाद ही उसके मन में एक विचार उपजा।

अगले प्रात:काल शहर में एक अनोखी चहल-पहल थी। दो दिन पहले जिस शहर में मुर्दानगी-सी छाई हुई थी, आज वहां फिर सजीवता के लक्षण दिखाई देने लगे थे। इस आकस्मिक परिवर्तन की वजह थी राजा की एक घोषणा। राजा तिमन ने आखिरी बार अपने नगर के अमीरों और वजीरों को एक शानदार दावत पर बुलाने की घोषणा कर दी थी। इसमें उसने शहर के माने हुए अमीरों,दरबारियों तथा अपने पुराने मित्रों को खास तौर से आमंत्रित किया था। घोषणा सुनकर खुशामदियों की आंखें एक बार फिर वैसे ही चमकने लगी जैसे शिकार को देखकर बाघ की चमकती हैं। 

दावत में वे लोग आए, जिन्होंने राजा का संदेश पाकर कल साफ'न' कह दी थी तथा वे लोग भी आए,
फिर वे राजा से पुरस्कार की बड़ी-बड़ी रकमें पा सकेंगे तथा उसकी चमड़ी उधेड़कर जो कल राजा को फिजूलखर्ची' होने का फतवा दे रहे थे। 

वे प्रसन्न थे कि एक बार अपनी खाल पर चिपका सकेंगे। अगर उन्हें कोई अरमान था तो केवल यही कि कल उनके मुंह से नहीं' क्यों निकल गई? क्या राजा ने यह सब चाल उनकी परीक्षा लेने लिए चली थी? यदि कल वे उसका संदेश पाकर उसे सचमुच दीवालिया न समझते और रुपया उधार दे देते तो सस्ते में ही वे राजा को अपने उपकारों से लाद सकते थे तथा छाती फुलाकर कह सकते थे कि हम आपके वफादार दोस्त हैं। हमने विपत्ति में आपका साथ दिया है। बस! फिर अपनी वफादारी का रंग जमाकर दुगुने-तिगुने वसूल कर लेते तथा उस पर अहसान अलग लादते।

एक ने कहा--"अरे भाई! अब भी क्या बिगड़ा है। राजा को प्रसन्न करना भी क्या कोई बड़ी बात है। कश्मीर के दो कालीन दे दो, अरब का एक घोड़ा नजर कर दो और तारीफ की दो बातें कह दो तो राजा फिर अपने ही अपने हैं।"
लोगों ने उस बातूनी की हां में हां मिलाई तथा लालचभरी आंखों से दावत की मेजों की तरफ देखने लगे। पहले की तरह हर एक अतिथि के सामने हाथीदांत की एक-एक मेज रखी थी तथा रंगदार मोटे अंगोछों के नीचे प्लेटें और प्यालियां सजी हुई दिखाई दे रही थीं। प्लेटों के अंदाजे से ही अतिथियों के मुंह में पानी भर आया था कि शायद इन
प्लेटों में मीठा पुलाव, गर्मागर्म तथा मसालेदार स्वादिष्ट मिठाइयां होंगी। 

इतने में राजा तिमन ने आंगन में प्रवेश किया तथा उसका संकेत पाते ही नौकरों ने मेजों पर से अंगोछे हटा दिए। दरबारी लोग इसी आंगन में तथा इन्हीं टेबलों पर दावतें उड़ाने के आदी हो चुके थे इसलिए अंगोछे सरकते ही उनके हाथ प्लेटों की तरफ बढ़े किंतु दूसरे ही क्षण उनकी आंखें प्लेटों पर पड़ी तो उनके हाथ जहां तक पहुंचे थे, वहीं जमे रह गए। आज वहां चीनी की चमचमाती प्लेटें नहीं थीं और न ही उनमें सुगंधित लपटों वाले पुलाव तथा मिठाइयां थीं। इनके बदले आज टेबलों पर मिट्टी के दो-दो प्याले पड़े थे। एक में हड्डी का एक टुकड़ा था तथा दूसरे में चुल्लू भर पानी। 

अतिथियों को पत्थर की मूर्ति की तरह स्तब्ध बैठे देखकर राजा ने गरजकर कहा-"कुत्तो! लालचियो ! क्यों नहीं खाते! तिमन के पास जब तुम्हें खिलाने को पुलाव तथा मिठाइयां थीं, तब उसने तुम्हें पेट भर खिलाईं। अब उसके पास तुम्हें खिलाने को अपने जिस्म की हड्डियां ही बाकी हैं। लालची कुत्तो! खाते क्यों नहीं?" अब अमीर-वजीरों को काटो तो खन नहीं। अपनी कृतघ्नता के कारण वे राजा से आंखें मिलाने का साहस कर कैसे सकते थे? जिसे जिधर रास्ता मिला, वह उधर ही
दुम दबाकर भाग निकला। 

यह राजा तिमन का आखिरी निमंत्रण था और अमीर-वजीरों की यह अंतिम दावत।

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