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मेरे चचाजान ने अपने जीवन का यह क़िस्सा हम लोगों से कहा था :

तुम लोग तो जानते ही हो कि रुपए कमाने के लिए मुझे फ्रांस के चारों तरफ घूमना पड़ता था। एक बार की यात्रा में मुझे दी-जो जिले के पास एक निहायत छोटे-से स्टेशन ब्लेजी-बा जाना पड़ा। वहाँ एक अद्भुत-सा छोटा मकान देखा।

उस मकान का रंग नीला था; वर्षा और बर्फ के तूफ़ान से नीला रंग कुछ फीका हो गया था।

प्रथम बार जब मैंने उस मकान को देखा, वह क़रीब चालीस साल पहले की बात है, रेल के डिब्बे में बैठे-बैठे ही। उस समय ट्रेन उस छोटे ब्लेज़ी-बा स्टेशन पर आकर रुकी थी। उस वक्त नीले मकान के सामने के बाग़ में एक बालिका गेंद से खेल रही थी। उसकी उम्र दस साल के करीब थी, उसकी शक्ल गुलाबी रंग की थी, उसकी पोशाक पीले रंग की थी और उसके रेशमी बाल एक नीले रेशमी फ़ीते से बँधे थे। उसके सर्वांग में एक प्रबल आनन्द की तरंग थी। वह आनन्द की मूर्ति-सी ही थी... उस सुबह को मेरा चित्त ठीक नहीं था; मेरा कारोबार ठीक नहीं चल रहा था, इसलिए बदमिज़ाजी से चिन्ता का पहाड़ लिए पेरिस शहर को लौटा जा रहा था।...इस क्षण-भर के चित्र ने आनन्द का पलस्तर देकर मेरे मन की सारी ग्लानि पोंछ दी।

उस सुबह आँखों की पलकें खोलकर प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच सजे हुए बाग़ की बालिका की मधुरता देखकर लगा कि आज का दिन मेरा बहुत अच्छा कटेगा। मैंने सोचा, 'ऐसी जगह में जो लोग रहते हैं, वे निश्चय ही सुखी हैं!...न उनको कोई चिन्ता है, और न कोई परेशानी ।' और उस आनन्द की मूर्ति बालिका की सरलता देखकर मुझे ईर्ष्या होने लगी। अगर मैं उसी की तरह अपनी चिन्ता का बोझ उतारकर विश्व-सौन्दर्य की लीला के बीच अपने को डुबा पाता। ट्रेन छूट गई।

ठीक उसी समय नीले मकान की एक खिड़की खोल कर किसी ने पुकारा, “लोरीन!"...और वह बालिका मकान के अन्दर चली गई।

लोरीन! यह नाम भी मुझको बहुत मीठा लगा, और ट्रेन में चुपचाप बैठे-बैठे मैं कल्पना की आँखों से वह लोरीन, वह गेंद, वह बाग़ और वह नीला मकान देखने लगा। क्रमशः सब धुंधला होने लगा, और फिर मकान, बाग, गेंद, लोरीन सब मेरी चिन्ताओं में मिल गए।

फिर बहुत दिनों तक उस तरफ नहीं गया। फ्रांस के उत्तर से पूर्व, कभी लील और कभी नैन्सी, रुपए की परेशानी से चक्कर काटता फिर रहा था; दिमाग़ में और किसी दूसरी चिन्ता का अवसर तक नहीं था।

करीब दस साल के पश्चात् एक शुभ दिन मार्सेई के लिए यात्रा की। वहाँ का काम खत्म करके लौटते समय मेरी पुरानी स्मृति जागृत हो उठी। मैं सन्ध्या की ट्रेन पर बैठा, जिससे ब्लेज़ी-बा स्टेशन पर ट्रेन सुबह के समय पहुँची।...वही नीला मकान, बिलकु ल वैसा ही है, बल्कि लगा कि रंग ज़रा फीका हो गया है, और मानो मकान की ओर किसी का ध्यान नहीं है।...पर उस बाग़ में एक नवयुवती बैठी हुई थी, बड़ी सुन्दर, उसके बाल उसके चित्त की तरह ही गुलाबी फ़ीते से बँधे हुए थे...यही तो वह लोरीन है, जिसे मैं जानता हूँ! उसके बग़ल में एक नवयुवक बैठा हुआ था। सारे चित्त की एकाग्रता से वह लोरीन को देख रहा था, लोरीन को खुश करने के लिए वह मानो क्षण-क्षण में अपने को न्योछावर कर रहा था, और उन दोनों को घेरकर वही सरल हँसी और चित्त की शान्ति उसी तरह विराजमान थी।

उनके उन तरुण-हृदय के मिलन दृश्य को देखकर मेरा चित्त आनन्द से भर उठा। जब ट्रेन खुलने की संकेत-घंटी बज उठी, मैंने झट खिड़की से मुँह बाहर निकालकर हाथ और सिर हिलाकर अभिवादन करके चिल्लाकर कहा, "नमस्ते, नमस्ते कुमारी लोरीन!... गुड़ बाई'. ...."

नवयुवती ने विस्मय-चकित होकर मेरी ओर अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फैला कर देखा, साथ-साथ उस युवक ने भी। फिर वे दोनों हँसते-हँसते मानो एक-दूसरे पर गिरने लगे, उन लोगों ने भी नमस्ते करके अपने रूमाल हिला कर अभिवादन किया।...मैंने ट्रेन की खिड़की से मुँह निकाल कर झुक-झुक कर सब देखा ।...मेरा हृदय आनन्द से पूर्ण हो गया।

फिर अनेक वर्ष बीत गए, मार्सेई लाइन पर कई बार आना-जाना तो काम की जल्दी में ऐसी ट्रेनों में आना-जाना हुआ, जो गहरी रात्रि में ब्लेज़ी-बा स्टेशन पर न रुककर ही चली जातीं। एक बार सन्ध्या की ट्रेन से जाने की सुविधा हुई, वही ट्रेन जो सुबह के समय ब्लेज़ी-बा स्टेशन पर पहुँचती थी। अब से कितने वर्ष पहले लोरीन को अपने प्रेमी के बग़ल में देखा था? बारह साल, या शायद पन्द्रह साल-मुझे ठीक-ठीक याद नहीं।

इस बार जब ट्रेन उस छोटे से स्टेशन पर जाकर खड़ी हुई, तो देखा कि उस नीले मकान के बाग़ में केवल एक बालक घास पर लेटा हुआ एक विशाल कुत्ते को पकड़कर खींचातानी करके खेल रहा है।...तब क्या एक बार के लिए भी मैं लोरीन को नहीं देख पाऊँगा?...मैं बहुत निराश हो रहा था। सहसा बालक चिल्लाने लगा, 'अम्माँ!... अम्माँ!...रेलगाड़ी आई है...रेलगाड़ी...."

तब एक अधेड़ महिला मकान के भीतर से निकल आई।...यह वही है, अवश्य वही है। जरा मोटी, जरा काली, पर फिर भी मैंने उसे देखते ही पहचान लिया। उसे देखते ही मैंने आनन्द से विहल होकर सम्मान के साथ टोपी उठाकर अभिवादन किया।...उसने भी मेरा अभिवादन लौटाया, पर कुछ विस्मय के साथ ।...वह सदा एक-सी रही है-वैसी ही सन्दर, वैसी ही सरल।...ट्रेन जब चलने लगी, तब अपने इस आगमन को चिहित कर रखने के लिए मैंने एक संतरा उठाकर बालक के उद्देश्य में बाग़ में फेंक दिया। संतरा घास पर लुढ़क गया, और उसके पीछे-पीछे वह बालक और कुत्ता दौड़े।

इसके बाद मेरे जीवन में ऐसी-ऐसी विचित्र घटनाएँ हुई, कि अब इतने सालों के बाद वह सब मानो स्वप्न-सा लगता है। तुम लोग जानते हो कि व्यापार के एक काम से मुझे तुर्क जाना पड़ा था। लौटते समय जहाज समुद्र में डूब गया। तब उस मुसीबत में ब्लेज़ी-बा स्टेशन के किनारे उस नीले मकान का स्मरण हुआ था या नहीं, तुम लोग सोच रहे हो!...हाँ, स्मरण हुआ था। जहाज़ के डूबने के बाद जब मृत्यु और मुझमें केवल एक तख्ते का व्यवधान था, तब ठीक उस पहले दिन की तरह ही सब चिन्ताएँ मेरे चित्त पर घूम रही थीं।...मैं तब अपने को धिक्कार कर कह रहा था, "हाय अभागे जॉन। दुनिया भर की सैर करते रहने का मज़ा तो चख लिया न! अगर तुम थोड़े में सन्तोष में दो दिनों के बाद कर लेना जानते तो तुम भी अपनी अपरिचित मित्र लोरीन की तरह ही शान्ति में रह पाते, कदाचित् धूप से गरम उस नीले मकान में ही जगह पा जाते। अब वह सब सुख की सम्भावना तो तुमने नहीं रखी!

भाग्य से मैं उस बार बच गया। वह मानो एक दैवी घटना थी। जब जीवन से निराश होकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, तब एक 'डच' जहाज़ मुझे समुद्र से उठा लिया!...पन्द्रह या बीस दिन के बाद, ठीक स्मरण नहीं, मैं फ्रांस लौट आया। स्वेदश लौटकर ही मैं मार्सेई से पेरिस शहर की ट्रेन पर सवार हुआ। यही मेरी अन्तिम यात्रा थी। इस बुढ़ापे में इतनी मुसीबतों के बाद और भ्रमण की मुझे चाह नहीं थी।

सुबह के समय ट्रेन उस ब्लेज़ी-बा स्टेशन पर जा पहुँची। मेरा हृदय मानो आनन्द के आवेग से फट जाने की तरह हो उठा, हृदय मानो पसली की हड्डियाँ तोड़-मोड़ कर एक बार लोरीन को देखने के लिए निकल भागना चाहता था। अभी ट्रेन रुकेगी और फिर चल देगी, केवल एक क्षण-भर का मौका है। शायद उससे अन्तिम साक्षात् नहीं होगा।

डिब्बे से मुँह बढ़ा कर दूर से ही देख पाया, स्टेशन से लगा हुआ वह नीला मकान धूप से जगमग उसी तरह खड़ा है।...सहसा धूप से उज्ज्वल नीले मकान को देखकर मुझे समुद्र में जहाज़ का डूबना और अपने जीवन और मृत्यु से संग्राम का स्मरण आया।...वह आज भी इस मकान में है, कदाचित वैसी ही शान्त तथा उदासीन! मेरे जहाज़ के डूबने की खबर भी वह न जानती होगी। ट्रेन ठीक उस मकान के सामने जाकर खड़ी हुई। मैंने देखा, मकान के पूरब की तरफ के बरामदे में एक बूढ़ी रमणी बैठी है। उसके रूपहले केश सिर के बीच से दो भागों में होकर फैले हैं, और उसके चारों तरफ घिरकर छोटे-छोटे बच्चे शोर मचा रहे हैं।

यही लोरीन है!...उसे और कोई पहचान नहीं सकता; पर मैं उसे पहचानता हूँ!...एक क्षण के लिए भी मुझे दुविधा नहीं हुई। उसे बालिका का गेंद से खेलना, फिर यौवन का वह लीला-चंचल साक्षात्; फिर पत्नी और माता की मूर्ति में, और आज वह दादी है। वह पोता-पोती, नाती-नातिन से घिरी हुई है, प्रत्येक बार भिन्न मूर्तियाँ उसी एक अभिन्न की!

इस बार की नज़दीकी मेरे चित्त को वेदना से भरने लगा! मैं और कभी इस रास्ते में नहीं आऊँगा। वह मेरा इस जन्म का अन्तिम साक्षात् था। मुझे बड़ी चाह होने लगी कि एक बार मैं कुछ समय के लिए बातें करके अपनी चालीस साल ही पुरानी इस अपरिचित मित्र लोरीन से अन्तिम विदा लेकर जाऊँ।...दैव ने मेरी सहायता की, इंजिन कुछ बिगड़ गया था-मरम्मत होने में घंटा भर लगेगा, तब तक स्टेशन में ही ठहरना था।...इस मौके के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। मैं अपनी इच्छा पूरी करूँगा। हम लोगों को इस बूढ़ी उम्र में संकोच का कोई कारण भी तो नहीं था।

मैं नीले मकान के फाटक की ओर चला; पर उस समय मेरे पैर थर-थर काँप रहे थे। मैं कभी भी आवेग से इतना विह्वल नहीं हुआ था। और मैं चाहे जो कुछ भी होऊँ, कायर नहीं था। यह बिलकुल सही है। तिस पर समुद्र के बीच लाइफ बेल्ट के सहारे दो दिन और दो रातें बिता कर मैं लौट रहा था। खैर, मैंने बुलाने का घंटा खींच ही तो दिया! एक नौकर ने आकर दरवाज़ा खोल दिया। मैंने उससे कहा, "उस बरामदे में जो बूढ़ी मालकिन बैठी हैं, मैं उनसे बातें करना चाहता हूँ।" वह नौकर मुझे बैठक में बैठाकर मालकिन को बुलाने गया।...वह आई...

इतने दिनों के पश्चात् आज लोरीन मेरे सामने आकर खड़ी हुई है, पर उससे कहने लायक एक भी बात मैं ढूँढ़ नहीं पाया। तब उसी ने मुझसे पूछा, “आप से मेरा साक्षात् होने का सौभाग्य कैसे हुआ, महाशय?"

डरते-डरते मैंने कहा, "तुम मुझे पहचान नहीं सकीं?"

“जी, नहीं!"

"ओ! मैं...मैं तुमको अच्छी तरह जानता हूँ!...स्मरण करो!...ज़माना बीत गया, जब से मैं तुम्हें जानता हूँ! मैंने तुमको इसी मकान के बाग़ में गेंद से खेलते देखा है। मैं वही आदमी हूँ, तुम्हें अवश्य याद होगा, जिसने एक बार ट्रेन की खिड़की पर से नमस्ते किया था। तब तुम्हारी शादी नहीं हुई थी; और फिर बहुत दिनों के बाद जिस आदमी ने एक संतरा एक छोटे..."

वह महिला जाने कैसी डरी हुई-सी मेरी ओर देखती रही; दो कदम पीछे हट गई मुझे पागल या शराबी सोच लिया; पर फिर मेरे बूढ़े वय की शान्त मूर्ति देखकर साहस पाकर बहुत कोमल स्वर से बोली, “आपकी भूल है, महाशय! हम लोग सिर्फ एक साल से इस नीले मकान में हैं।"

मैं चकित हो गया। मैंने हकलाते हुए पूछा, "तब...क्या...आप...लोरीन...नहीं... हैं.."

"लोरीन!...आप किस के बारे में कह रहे हैं, मैं नहीं समझ पा रही हूँ। हमारे घर मैं इस नाम का तो कोई भी नहीं है!

मुझे लगा, मानो मेरे चारों तरफ स्वप्न का वातावरण आ गया है। जब वह महिला जाने लगी. तब मैंने कहा, "क्षमा कीजिएगा, मेरे एक प्रश्न का उत्तर देती जाइए। आप लोगों के आने के पहले इस मकान में कौन रहते थे?"

हम लोगों के पहले? एक बूढ़े सज्जन। वे चिर कुमार थे। दस साल पहले उनकी मौत हुई है।

महिला ने मुझसे बहुत भड़कीले ढंग से नमस्ते करके, फाटक के बाहर तक मुझे पहुँचा कर फाटक बन्द कर दिया। मैं पूरा बेवकूफ बन कर ब्लेज़ी-बा की गली में चल रहा था। इस आकस्मिक दुर्घटना के दुख से मेरा हृदय भारी हो गया था।...नहीं, मुझे तलाश करके सब मालूम करना ही पड़ेगा...अवश्य ही कोई भारी भूल इसमें उलझी हुई है, खोज कर उसका पता लगाना ही है ।

मैंने स्टेशन मास्टर से पूछा , वे सज्जन कुछ भी नहीं जानते थे। वे इस स्टेशन पर नए आए थे। पर उन्होंने बताया कि इस गाँव का सबसे बूढ़ा एक आदमी स्टेशन के पास नीले मकान के सामने रहता है, उससे पता मिल सकता है।

बूढ़े ने याद करते हुए कहा, “लोरीन?..., लोरीन?...नहीं साहब, मुझे तो याद नहीं आ रहा है...'

"पर कोई पन्द्रह-सोलह साल पहले उस बाग़ में एक महिला को देखा था, कुछ मोटी और कुछ काली। उसके साथ एक छोटा बच्चा और एक बड़ा कुत्ता था, तो वह कौन थी?

“अच्छा! एक बड़ा कुत्ता...? एक बड़ा कुत्ता? वह तो दारोगा की औरत श्रीमती जिलामे थी। उसका नाम तो लोरीन नहीं। मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं तो उनके ही मकान में रहता था। दारोगा का नाम फ्रांसिस था।

" मैं तो पूरे जाहिल की तरह हो गया।

“अच्छा जनाब, ज़रा अच्छी तरह याद तो कीजिए...अच्छा इसके पहले, करीब बारह साल पहले; एक युवती, बहुत गोरी, काफ़ी लम्बी, सिर के बाल गुलाबी फ़ीते से बँधे रहते थे, और एक कुछ काला-सा युवक, बहुत सम्भव है कि उस युवती से उसकी सगाई हुई थी, क्या इस नीले मकान में नहीं रहते थे?"

बूढ़ा सोचता रहा, सोचता रहा, बहुत देर तक सोचता रहा।...अन्त में बूढी को बुलाया। बूढ़ी छोटी शक्ल की औरत थी, आँखें उज्ज्वल जीवित-सी, चतुर-सा मुखड़ा, देखते ही लगता कि उसकी स्मरण-शक्ति तेज है। बुढे ने उससे सब बातें कहीं।

"ओह! वो तो कुमारी स्तेफानी थी। ठेकेदार साहब की लड़की...वही तो कुछ लम्बी-सी थी, फीते से बाल बाँधकर रखती थी...यह उसके सिवाय और कोई नहीं हो सकता। दी-जो शहर के एक सौदागर से उसकी शादी हुई थी। अहा, बेचारी! उनकी शादी सुखद नहीं हुई थी। वे एक-दूसरे से अलग हो गए हैं। अहा, वह लड़की अब...क्या नाम है...हाँ, सोमबरनों शहर में अपने बाप के घर रहती है। अहा, बेचारी बड़ी दुखी है.."

मैंने जाने के लिए नमस्ते किया।...और समय नहीं रहा, कुछ ही देर में ट्रेन छूटेगी।

"लोरीन! लोरीन! यह तो मेरा भ्रम नहीं है। मैंने उसे इतनी छोटी उम्र में देखा था, उसका नाम सुना था। आज भी मैं मानो उसे आँखों के सामने देख रहा हूँ कि वह बसन्त की तितली की तरह नाचती-कूदती खेल रही है।

" यह सुनकर बूढ़ी कह उठी, "ओह! यह बात पहले ही कह देते!...आपने पहले एक अधेड़ औरत की बात पूछी, फिर पूछी एक जवान लड़की की बात...अब कह रहे हैं एक छोटी लड़की के बारे में....हाँ, जी, वह तो मुझे अच्छी तरह याद है।...लोरीन!...हाँ, उसका नाम तो लोरीन ही था।...ओफ़, यह क्या हाल की बात है। चालीस साल बीत गए होंगे!...आप उस सुन्दर छोटी लड़की के बारे में पूछ रहे हैं?...वह डॉक्टर साहब की लड़की थी, हम लोगों की रिश्तेदार! अहा, बेचारी लड़की दस साल की उम्र में मर गई!" दस साल की उम्र में, मेरे उसको देखने से कुछ ही हफ्तों के बाद, वह मर गई। और मैं? इन चालीस सालों से उसका अनुसरण करता फिर रहा हूँ!...

- एमेन्युयेल अरेन


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