सेमेन इवानफ़ रेलवे में गुमटिहारा था। उसकी गुमटी एक स्टेशन से बारह मील और दूसरे स्टेशन से दस मील की दूरी पर थी। पिछले वर्ष चार मील के फ़ासले पर एक कपड़े की मिल स्थापित हुई थी। जंगल के पीछे से उसकी ऊँची धुएँ की काली चिमनियाँ दीखती थीं।
सेमेन इवानफ़ एक रोगी और अस्वस्थ आदमी था। वह नौ साल पहले युद्ध में गया था। वहाँ एक अफ़सर के पास अर्दली का काम करता था; सारे युद्ध के समय वह उसी अफ़सर के साथ रहा था। वह भूखा रहता था, ठंड से सिकुड़ जाता था, तेज़ सूर्य ताप से जलता था और बर्फ गिरने के मौसम में या जलती गर्मी के मौसम में सेना-दल के साथ चालीस पचास मील तक पैदल चलता था। कितनी ही बार उसे गोलियों की बौछार के भीतर से चलना पड़ा था; लेकिन परमात्मा की कृपा से कभी एक भी गोली ने उसके देह को स्पर्श नहीं किया था।
एक बार उसका रेजिमेंट प्रथम लाइन में था; लगातार एक सप्ताह तक दोनों तरफ
से गोलियों की बौछार हुई थी। गड्ढे के इस तरफ रूसी सेना और गड्ढे के उस तरफ
तुर्की सेना ने प्रतिदिन सुबह से रात तक गोलियाँ चलाई थीं। सेमेन का अफ़सर भी प्रथम
लाइन में था। दिन में तीन बार रेजिमेंट के रसोईघर से गरम चाय और भोजन उसके
पास ले जाता था। खली जगह से निकलता था और उसके सिर के ऊपर से गोलियाँ
' सन्न' से निकल जाती थीं और पत्थरों से जाक
र टकराती थीं। सेमेन रोता था, फिर
भी चलता था। अफ़सर को सदा गरम चाय मिलती थी।
वह बिना चोट खाए युद्ध से लौट आया; पर उसके हाथ-पैरों में गठिया का दर्द होने लगा। उसी समय से उसने बहुत दुख पाया। युद्ध से लौट आने के कुछ दिन बाद ही बाप की मौत हुई; फिर उसके चार वर्ष के बच्चे की भी कंठ-रोग से मृत्यु हो गई। वह और उसकी पत्नी अकेले रह गए। दुनिया में अब उनका कोई भी नहीं रहा।
उन लोगों को जो ज़मीन दी गई थी, उस ज़मीन की खेती में भी वे सफल नहीं हुए। गठिया से फूले हाथों से खेती करना बहुत कठिन था। इसीलिए अपने गाँव में कुछ कर न पाकर, उन लोगों ने भाग्य की परीक्षा के लिए किसी नई जगह जाने का निश्चय किया। कुछ समय तक सेमेन डन् नदी के किनारे पत्नी को लेकर रहा, पर दुर्भाग्य से वहाँ भी कुछ नहीं कर सका। अन्त में उसकी पत्नी ने एक नौकरानी का काम पकड़ लिया; पर सेमेन उसी तरह भटकता फिरा।
उन्हीं दिनों किसी काम से उसे रेल में सफ़र करना पड़ा। उस समय एक स्टेशन के स्टेशन मास्टर पर उसकी निगाह पड़ी। ख्याल हुआ, इस स्टेशन मास्टर को वह जानता है। सेमेन एकटक उसकी ओर देखता रहा, तब वह भी सेमेन का चेहरा आग्रह से देखने लगा। असल में वह उसके रेजिमेंट का एक अफ़सर था। उसने पहचान कर कहा,
“अरे, तुम सेमेन हो न?"
"हाँ जी, मेरा नाम सेमेन ही है।"
"तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"
तब सेमेन ने अपनी दुर्दशा का सारा किस्सा उससे कहा।
"अच्छा, तो अब कहाँ जा रहे हो?"
"यह तो मैं नहीं कह सकता, जनाब!"
"कैसी बात कह रहे हो? तुम तो बड़े अद्भुत आदमी हो! कहाँ जा रहे हो, यह नहीं बता सकते?"
"हाँ, बिलकुल सही है जनाब, मुझे कहीं भी जाना नहीं है। मुझे काम की तलाश है।
स्टेशन मास्टर ने एक बार उसकी ओर देखा, कुछ सोचने लगा। फिर कहा, “अच्छा भाई, फिलहाल इसी स्टेशन पर तुम रहो। लेकिन मुझे ख्याल आ रहा है कि तुम विवाहित हो। तुम्हारी पत्नी कहाँ है?"
“जी हाँ, मैं विवाहित हूँ। मेरी पत्नी कुरुष्क शहर के एक सौदागर के घर में नौकरी करती है।"
"अच्छा तो तुम अपनी पत्नी को यहाँ आने के लिए लिखो। मैं उसके लिए एक फ्री टिकट का इन्तज़ाम कर दूंगा। जल्दी ही इस लाइन में एक गुमटिहारे की जगह खाली होगी, मैं इंस्पेक्टर से वह काम तुम्हें दिलवाने के लिए कहूँगा।"
सेमेन ने उत्तर दिया, "बहुत धन्यवाद, महाशय!"
इस तरह सेमेन उस स्टेशन पर रह गया। स्टेशन-मास्टर के रसोईघर के काम में वह सहायता करने लगा। वह लकड़ी चीरता था, आँगन बुहारता था, प्लेटफार्म साफ़ करता था। दो सप्ताह में ही उसकी पत्नी भी आ गई, और सेमेन एक 'ट्राली' पर सवार होकर अपने नए घर में आ गया।
यह गुमटी नई बनी थी और काफ़ी गरम थी। यहाँ जलाने की लकड़ी बहुत सारी थी। पहले का चौकीदार एक छोटा-सा सब्जी का खेत भी बना गया था और लाइन के दोनों तरफ एक बीघा खेती के काबिल जमीन भी थी। सेमेन बहुत खुश हुआ। वह अब अपनी एक घर-गृहस्थी का स्वप्न देखने लगा; उसने एक घोड़ा और एक गाय खरीदने की बात सोची।
जो कुछ भी आवश्यक था, सब उसे दिया गया-लाल-हरी झंडियाँ, लालटेन, एक सीटी, हथौड़ा, पेचकस, एक टेढ़ा गदाला, कुदाली, झाड़, कीलें, बोल्ट और रेलवे के नियम और कानून की दो किताबें। पहले-पहल सेमेन रात को सोता नहीं था। वह सब नियम और कानून समझने के लिए दोनों किताबें पढ़ता रहता था। दो घंटे में किसी ट्रेन के आने की बात रहने पर, वह उससे बहुत पहले ही एक चक्कर लगा आता था, और अपनी निगरानी की छोटी कुर्सी पर बैठकर सब देखता था और कान लगाकर सब सुनता था-लाइन काँप रही है या नहीं, निकट में चलती ट्रेन की कोई आवाज़ सुनाई दे रही है या नहीं।
अन्त में उसे सब नियम और कानून याद हो गए। यद्यपि वह बहुत कठिनाई से पढ़ सकता था और प्रत्येक शब्द को हिज्जे करके पढ़ता था, फिर सब रट लिया।
। उसने किसी प्रकार यह सब गर्मी के मौसम में हुआ था। काम कठिन नहीं था, ठेला, कुदाली से बर्फ काटकर एक जगह जमा नहीं करना पड़ता था, इसके सिवाय उस लाइन पर बिरले ही ट्रेन चलती थी। सेमेन चौबीस घंटे में दो बार अपनी निर्दिष्ट चौकी देने की जगह पर से चलता था। कहीं पेच ढीला हो जाने पर कस देता थी, लाइन पर से कूड़ा-करकट उठा लेता था, पानी के नल की परीक्षा करता था, फिर अपनी छोटी-गुमटी में जाकर घर-गृहस्थी का काम करता था।
पर एक बात से वह और उसकी पत्नी दोनों बहुत दिक हो गए थे। वे जो कुछ भी करने का निश्चय करते, उसके लिए एक रेलवे के अफ़सर से इजाज़त लेने की आवश्यकता पड़ती थी। वह अफ़सर और एक बड़े अफ़सर के पास उस बात को पेश करता। अन्त में जब समय बीत जाता तब वह इजाज़त दी जाती। तब इतनी देर हो जाती कि वह इजाज़त किसी काम में नहीं आती। इस कारण कभी-कभी सेमेन और उसकी पत्नी उदास हो जाते।
इस तरह दो महीने बीत गए, तब बहुत निकट के पड़ोसियों से, उसकी तरह के रेल के चौकीदारों से, सेमेन का परिचय होना शुरू हुआ। उसमें एक बहुत ही बूढ़ा था, जिसकी जगह पर और एक आदमी रखने के लिए रेलवे के अफ़सर लोग बहुत दिनों से सोच रहे थे। वह अपनी गुमटी से बाहर नहीं जा सकता था, उसका काम उसकी पत्नी ही करती थी। और एक चौकीदार था, जो स्टेशन के पास ही रहता था, उसकी उम्र बहुत कम थी। उसकी देह इक हरी, लेकिन पुछेदार थी। लाइन की निगरानी से लौटते समय, दोनों की गुमटी के बीच रास्ते पर, उस आदमी से सेमेन की प्रथम भेंट हुई। सेमेन ने अपनी टोपी उठा कर सिर झुकाया। फिर कहा, "मैं तुम्हारी तन्दुरुस्ती की कामना करता हूँ, पड़ोसी
पड़ोसी ने तिरछी निगाह से देखा और फिर चुपचाप अभिवादन करके बिना बात किए चला गया।
फिर स्त्रियों में भी भेंट हुई। सेमेन की पत्नी और आरीना ने अपनी पड़ोसिन को शिष्टता के नाते अभिवादन किया, पर यह पड़ोसिन भी गम्भीर स्वभाव की होने के कारण दो-चार बातें कहकर चली गई। एक बार उससे भेंट होने पर सेमेन ने पूछा, “क्यों जी, तुम्हारा पति इतना गम्भीर क्यों रहता है? बोलता-चालता नहीं?"
वह चुपचाप कुछ देर खड़ी रहकर बोली, “वह तुम लोगों से क्या बात करे? सभी के अपने दुख और मुसीबतें हैं, परमात्मा तुम्हारा भला करें। और फिर चली गई।
और समय बीतता गया। उन लोगों में घनिष्ठता बढ़ी। अब, जब लाइन के किनारे सेमेन और वैसिली में भेंट होती, तब वे लाइन के किनारे बैठकर तम्बाकू पीते, और अपने-अपने अतीत और अनुभव की बातें कहते। वैसिली अधिक बात नहीं करता था, पर सेमेन अपने सामरिक जीवन की बातें या अपने गाँव की बातें सुना कर कहता,
"अपनी इस उम्र में मैंने बहुत कष्ट और दुख झेला है। ईश्वर जानता है कि मेरी उम्र भी अधिक नहीं है। मेरी तक़दीर में ज्यादा सुख और सौभाग्य नहीं लिखा था। मुझे जो मिलना था, ईश्वर ने दिया। इसी से मुझे सन्तोष से रहना है, मेरे भाई!
" वैसिली ने राख फेंकने के लिए लाइन पर पाइप को ठोंक कर उस दिन कहा, “मेरा जीवन या तुम्हारा जीवन जो नोच-नोचकर खा रहा है वह हमारा भाग्य नहीं, ईश्वर भी नहीं, 'लोग' नोच-नोच कर खा रहे हैं! कोई भी पशु मनुष्य से अधिक निर्दय या लालची नहीं है। भेड़िया भेड़िये को मार कर नहीं खाता है, पर मनुष्य जीवित मनुष्य को भकोसता है!"
"भाई, भेड़िया भेड़िये को खा लेता है, इस विषय में तुम गलती कर रहे हो।'
"मेरी जुबान में जो आया सो कह दिया। खैर, कोई भी पशु मनुष्य से अधिक क्रूर नहीं है। मनुष्य की बुरी बुद्धि और लालच न होती, तो जीवन बिताना सम्भव होता। हरेक आदमी, कैसे तुम्हारी छाती पर वार करेगा, उसमें से एक टुकड़ा मांस नोच कर भकोस जाएगा बस, इसी की तलाश में रहता है।"
सेमेन ने कुछ सोच कर कहा, “कह नहीं सकता भाई, यह हो भी सकता है। अगर ऐसा ही हो तो वह परमात्मा की इच्छा है।"
“और अगर ऐसा ही हो, तुमसे कहने से कोई लाभ नहीं है। जो आदमी सब अन्याय ईश्वर पर सौंप देता है और खुद चुपचाप धैर्य के साथ रहता है, वह मनुष्य नहीं है, भाई, वह एक पशु है। मुझे जो कहना था, मैंने सब कह दिया।" यह कह कर बिना अभिवादन किए वह चल दिया।
सेमेन उठकर उसे पुकारने लगा, “भाई पड़ोसी, तुम क्यों मेरा तिरस्कार कर रहे हो?"
पर पड़ोसी ने एक बार भी घूमकर नहीं देखा। वह अपनी गुमटी की ओर चला गया। सेमेन, जहाँ तक निगाह पहुँची, उसकी ओर देखता रहा। दृष्टि से ओझल हो जाने पर, घर आकर उसने पत्नी से कहा, "देखो, अरीना, हमारा यह पड़ोसी कितना क्रूर और भयानक आदमी है!" फिर भी वे एक दूसरे से क्रोधित नहीं हुए थे। दुबारा जब भेंट हुई तब मानो कुछ भी नहीं हुआ है इस भाव फिर उसी विषय पर उन लोगों की बातें शुरू हुई।
वैसिली ने कहा, “कहो भाई, क्या ऐसी ही गुमटी में रहने के लिए हम लोगों का जन्म हुआ था? और लोगों के लिए ही ऐसी गुमटियों में हम लोगों को रहना पड़ रहा है।"
“अगर गुमटी में ही हम लोगों को रहना पड़े, तो हर्ज की क्या है?"
“इन गुमटियों में रहना वैसा बुरा तो नहीं है। तुम तो बहुत दिन से हो, पर तुम्हें तो कोई लाभ नहीं हुआ है! एक ग़रीब आदमी, चाहे कहीं भी रहे, रेलवे की गुमटी में या और कहीं, उसका जीवन कैसा है, यह तो कहो? वे सब राक्षस तुम्हारा जीवन चूस लेते हैं, जीवन की खासियत निकाल लेते हैं, और जब तुम बूढ़े हो जाओ, तब वे तुम्हें कूड़ा-करकट की तरह बाहर फेंक देते हैं। तुम कितनी तनख्वाह पाते हो?"
"अधिक नहीं, वैसिली, सिर्फ़ बारह रुपए।"
“और मुझे साढ़े तेरह रुपए मिलते हैं-अच्छा, तुमसे मैं पूछता हूँ, इसका कारण क्या है? रेलवे के उपनियम के अनुसार सबको एक ही तनख्वाह मिलनी चाहिए, यानी मासिक पन्द्रह रुपए और रोशनी और जलाने की लकड़ी। कहो तो, किसने तुम्हारे लिए बारह रुपए किए और मेरे लिए साढ़े-तेरह रुपए? इसका कारण क्या है? मैं तुमसे भी पूछता हूँ, और तुम कहते हो कि इस तरह का जीवन बुरा नहीं है! मेरी बातें अच्छी तरह समझ तो लो, मैं तीन या डेढ़ रुपए के लिए लड़ नहीं रहा हूँ। वे अगर मुझे पूरी तनख्वाह ही दें, तो उससे क्या? पिछले महीने में मैं स्टेशन पर था, इत्तफ़ाक से डायरेक्टर उस समय वहाँ से जा रहे थे। स्टेशन पर ही उनसे भेंट हुई। वे अकेले एक पूरी रेलगाड़ी पर बैठे हुए थे। स्टेशन पर उतर कर प्लेटफार्म पर खड़े होकर देखने लगे...नहीं, मैं यहाँ और नहीं रहूँगा! अवश्य ही कहीं चला जाऊँगा!"
“पर तुम कहाँ जाओगे, वैसिली? यहाँ रहो। इससे अच्छी नौकरी तुम और कहीं नहीं पाओगे। यहाँ रहने के लिए घर है, लकड़ी है, थोड़ी-सी ज़मीन भी है! तुम्हारी पत्नी मेहनती..."
"ज़मीन!" मेरी ज़मीन तुम्हें देखनी चाहिए, कहीं तिनका तक नहीं। इस बसन्त काल में मैंने थोड़ी बन्दगोभी बोई थी। एक दिन इंस्पेक्टर उधर से जा रहा था, कहा, 'यह क्या? मुझसे इजाज़त क्यों नहीं ली? अभी सब उखाड़ डालो। इसका एक भी चिह्न न रहे!' उस समय वह शराब के नशे में था। ठंडे मिज़ाज में होता, तो कुछ भी नहीं बोलता। बस, तीन रुपए जुर्माना हो गया!
" कुछ देर तक वैसिली चुपचाप तम्बाकू पीता रहा, फिर धीमे स्वर से कहा, "और कुछ अधिक होने पर मैं उसे मज़ा चखाता!"
"भाई पड़ोसी, तुम्हारा दिमाग़ बहुत गरम है। बस, मैं इतना ही कह सकता हूँ।"
"नहीं, मेरा दिमाग़ गरम नहीं है। मैं जो कह रहा हूँ, वह सब न्याय की दृष्टि से। फिर उसने मेरा लाल गिलास हड़पना चाहा। मैं यह सब सुपरिटेंडेंट के पास शिकायत करूँगा। देखू क्या होता है!
" उसने सचमुच शिकायत की भी थी।
एक दिन सुपरिटेंडेंट लाइन की पेशगी निगाह बानी करने के लिए आए थे। तीन दिन के भीतर कई प्रधान व्यक्ति रेल-पय की देखभाल करने आनेवाले थे। जहाँ जैसा होना चाहिए, वैसा ही सब करके रखना था। उनके आने के पहले नए कंकड़ लाकर लाइन के बीच डाल कर चौरस किया गया था, लाइन बिछाने की लकड़ियाँ जाँची गई थीं, लोहे की बोल्छे कसी गई थीं, मीलों के खम्भे रँगे गए थे और चौरा हे पर पीली बालू छिड़क दी गई थी।
एक पत्नी ने अपने बूढ़े को घास से भरी ज़मीन साफ करने के लिए जबरन घर से निकाल दिया ।। वह बूढ़ा गुमटी से बाहर नहीं होता था। सेमेन ने सब काम अच्छी तरह से निभाने के लिए जी-जान से मेहनत की; अपने कोट की भी मरम्मत की, अपनी ताँबे की चपरास को भी राख से मल कर चमकीला बना डाला। वैसिली ने भी बहुत मेहनत की। अन्त में सुपरिटेंडेंट साहब ट्राली पर आ पहुँचे। चार आदमियों ने घंटे में बीस मील की रफ्तार से गाड़ी को ढकेला था। वह गाड़ी भागती हुई सेमेन की गुमटी की ओर आई। सेमेन ने सामने कूदकर सामरिक कायदे से अभिवादन करके कहा-
“सब ठीक है।" देखने पर लगा कि सब ठीक ही है।
सुपरिटेंडेंट ने पूछा, “यहाँ कब से काम करते हो?"
"हुजूर, मई महीने की दूसरी तारीख से काम कर रहा हूँ।"
"बहुत अच्छा, धन्यवाद। और 164 नम्बर में कौन है?"
जो इंस्पेक्टर गाड़ी में साथ आया था, उसने जवाब दिया, "वैसिली।"
“वैसिली!" जिसके विरुद्ध तुमने रिपोर्ट की थी?"
"हाँ, वही है!"
"अच्छा, वैसिली की शक्ल, तो देख लें। बढ़ो!" कुली लोग हैण्डिल पकड़कर झुक गए! लाइन पर गाड़ी 'सें-सें' आवाज़ करती हुई चलने लगी। गाड़ी जब ओझल हो गई, तब सेमेन ने मन-ही-मन कहा, 'दीख रहा है कि हमारे पड़ोसी से इन लोगों की लड़ाई होगी'
और दो घंटे के बाद सेमेन लाइन की देखभाल के लिए निकल पड़ा। उसने देखा कि लाइन पर से एक आदमी पैदल उसकी ओर आ रहा है, और उसके सिर पर एक सफ़ेद-सी चीज़ दीख रही है। सेमेन आँखें फाड़ कर उसे देखने के लिए कोशिश करने लगा। देखा, वैसिली ही है। उसके हाथ में एक छड़ी थी, एक छोटी-सी गठरी उसके कन्धे पर लटक रही थी, और उसके गाल सफ़ेद रूमाल से बँधे थे। सेमेन ने चिल्ला कर पूछा, “कहाँ जा रहे हो पड़ोसी?"
वैसिली जब और निकट आया तब सेमेन ने देखा कि खड़िया की तरह उसका चेहरा सफ़ेद हो गया है और आँखें लाल । जब उसने बातें करनी शुरू कीं, उसका स्वर बैठा हुआ था। उसने कहा, “मैं शहर को जा रहा हूँ, मास्को में, रेलवे के बड़े साहब से मिलने के लिए।"
"बड़े साहब के पास? तो क्या तुम शिकायत करने के लिए जा रहे हो? मैं कहता हूँ वैसिली, तुम मत जाओ। भूल जाओ..."
“नहीं भाई, मैं नहीं भूलूँगा। देखो, मेरे मुँह पर मारा है, जब तक खून न निकल आया तब तक मारा है। मैं जब तक ज़िन्दा रहूँगा, मैं नहीं भूल सकता। इसके सिवाय मैं इसे यों ही जाने नहीं दूंगा।"
सेमेन ने उसका एक हाथ पकड़कर कहा, “जाने दो भाई, वैसिली! मैं सच कह रहा हूँ, तुम कोई प्रतिकार नहीं कर सकोगे।"
"प्रतिकार की बात कौन कहता है? मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं कोई भी प्रतिकार नहीं कर सकूँगा। तक़दीर की बात तुमने जो कही थी, सो सही है। मैं अपने कुछ भी भलाई नहीं कर सकूँगा, पर किसी एक को तो न्याय के पक्ष में खड़ा होना चाहिए।"
"पर तुम मुझसे यह कहो, कैसे यह सब हुआ?"
"कैसे हुआ! तब सुनो! उन्होंने आकर सब देखा-भाला, इसी मतलब से गाड़ी को यहीं छोड़ गए थे। उन्होंने मेरे घर के भीतर तक देखा। मैं पहले से ही जानता था कि वे बहुत कड़े होंगे, इसलिए मैंने बहुत सावधानी से सब इन्तज़ाम ठीक ढंग से कर रखा था। वे जब चलने लगे तब मैंने निकलकर वह शिकायत की। बस, वे बड़े नाराज़ हो उठे, “यहाँ अब सरकारी निगाहबानी होगी, और तुम अपने सब्जी के खेत के बारे में शिकायत करने लग गए? हम लोग मन्त्री के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तुमने किस साहस से अपनी बन्दगोभी की बात छेड़ी?' मैंने अपने को सँभाल न पाकर एक बात ही कह दी, वह बात कुछ भी बेज़ा नहीं थी, पर इस बात से नाराज होकर उन्होंने मुझे मारा। ऐसी घटना जैसे रोज़ ही होती रहती है, इस भाव से मैं चुप खड़ा रहा। उनके चले जाने पर मुझे होश हुआ। मुँह पर का खून धो कर निकल पड़ा।"
"और तुम्हारे घर का क्या हुआ?"
"मेरी पत्नी वहाँ है, वही मेरा सब काम करेगी। अब अगर वे कमीने रास्ते में किसी खतरे में पड़ जाएँ, तो मुझे खुशी हो। विदा सेमेन, मुझे पता नहीं, न्याय मिलेगा या नहीं।"
"तुम क्या यहाँ से पैदल चले जाओगे?"
"मैं स्टेशन के लोगों से कहूँगा मालगाड़ी में जाने की इजाजत देने के लिए। मैं कल ही मास्को में पहुँच जाऊँगा।"
दोनों पड़ोसी एक-दूसरे से विदा लेकर अपनी-अपनी राह पर चले गए। वैसिली कई दिनों तक घर से बाहर रहा। उसका सब काम उसकी पत्नी ही करती थी। रात या दिन में वह ज़रा भी सोती नहीं थी। उसका चेहरा देखने पर लगता था कि वह बहुत थक गई है। तीसरे दिन सुपरिटेंडेंट अपने दल के साथ चले गए। एक इंजिन, एक गार्ड की गाड़ी और दो स्पेशल गाड़ियाँ निकल गईं। उस समय भी वैसिली गैरहाज़िर था। चौथे दिन सेमेन जाकर वैसिली की पत्नी से मिला। उसका चेहरा रो-रो कर फूल उठा था। ससे पूछा, "तुम्हारा पति लौट आया?"
उसने केवल हाथ हिलाया। एक भी बात नहीं कही।
सेमेन जब बालक था तब से ही 'विलो' लकड़ी की बाँसुरी बनाना जानता था।
वह लकड़ी का भीतरी भाग जलाकर फेंक देता था, जहाँ छोटे-छोटे छेद करने की आवश्यकता होती, वहाँ छेद करता था। इस तरह वह ऐसी निपुणता से बाँसुरी बनाता से ताकि उसमें से सब तरह के स्वर निकलते थे। अब वह अपनी छुट्टी के समय बाँसुरी बनाकर, किसी परिचित गार्ड के द्वारा शहर में भेज देता था। बाँसुरी एक-एक आने में बिक जाती थी।
निगाहबानी के तीसरे दिन, अपनी पत्नी को घर पर छोड़कर, वह छह बजेवाली लिए गाड़ी को हाज़िरी देने गया, और फिर अपनी छुरी लेकर 'विलो' पेड़ से लकड़ी काटने के लिए जंगल में प्रवेश किया। वह अपने विभाग के अन्तिम प्रान्त में आ पहुँचा। वहाँ सड़क एकाएक मुड़ गई थी, और आध मील दूर एक बड़ी कीचड़ दार ज़मीन थी, उसी के चारों तरफ बाँसुरी बनाने लायक लकड़ी थी। सेमेन ढेर-सी लकड़ी काट कर जंगल के भीतर से घर की ओर चला। उस समय सूर्य डूब रहा था। चारों तरफ मरघट-सी निस्तब्धता छाई थी। केवल पक्षियों का कलरव और हवा से भगाए सूखे पत्तों के गिरने का शब्द हो रहा था। और थोड़ी दूर जाने पर लाइन के पास पहुंचा जा सकता है।
सहसा उसे लगा कि मानो लोहे पर लोहे का आघात पड़ कर 'ठन्-ठन्' आवाज़ हो रही है! सेमेन तेजी से चलने लगा। मन में सोचा, यह किसकी आवाज़ हो सकती है? क्योंकि वह जानता था कि उस समय कहीं भी मरम्मत का काम नहीं हो रहा था। वह जंगल के किनारे पर आ गया। उसके सामने रेलवे का बाँध बहुत ऊँचा हो उठा था। देखा कि उस बाँध पर एक आदमी लाइन पर बैठा कोई काम कर रहा है। लगा कि मानो कोई लाइन के पेच चुराने की कोशिश कर रहा है। फिर देखा कि वह आदमी उठकर खड़ा हुआ है, उसके हाथ में एक टेढ़ा गदाला है, उसने तुरन्त गदाला लाइन के नीचे घुसेड़ दिया और एक तरफ ज़ोर से धक्का दिया। यह देखकर सेमेन का सिर चक्कर काटने लगा। उसने चिल्लाने की कोशिश की, पर चिल्ला नहीं सका। और उसने देखा कि वह आदमी वैसिली है!
सेमेन ने दौड़कर उसके निकट जाने की चेष्टा की; पर तब तक वैसिली बाँध की दूसरी ओर गदाला आदि औजार लेकर उतरने लगा था।
"वैसिली! वैसिली, मेरे भाई, लौट आओ! मुझे गदाला दे दो! मैं लाइन को फिर ठीक जगह पर लगा दूँगा। कोई भी नहीं जान सकेगा। लौट आओ। इस भयानक पाप से अपने को बचाओ!"
पर वैसिली ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा, वह सीधा जंगल के भीतर चला सेमेन उखड़ी लाइन के पास खड़ा रहा, लकड़ी के टुकड़े उसके पैरों के पास बिखरे पड़े रहे। जो ट्रेन आ रही थी, वह मालगाड़ी नहीं थी, वह पैसेंजर ट्रेन थी। गाड़ी रोकने लायक उसके पास कुछ भी नहीं था। उसके हाथ में झंडी नहीं थी। वह लाइन को ठीक जगह बैठा नहीं सकता, वह केवल हाथ से लाइन का पेंच कस भी नहीं सकता। आवश्यक औजार लाने के लिए उसे अपनी गुमटी तक दौड़ कर जाना पड़ेगा, नहीं तो इस ट्रेन को बचाना कठिन है।
सेमेन अपने घर की ओर पागल की तरह दौड़ा। बीच-बीच में उसे लगा कि वह गिर पड़ेगा, अन्त में जंगल ख़त्म हो गया और सौ कदम जाने पर वह अपनी गुमटी में पहुँच सकता है, उसी समय एकाएक कारखाने की सीटी बज उठी। यह छह बजा, छह बजकर दो मिनट पर ट्रेन उस जगह से निकल जाएगी। परमात्मा, इन निर्दोषों की रक्षा करो! अपनी आँखों के सामने वह मानो देखने लगा, इंजिन का बायाँ पहिया कटी लाइन पर अभी टकराएगा, काँप उठेगा, फिर एक तरफ झुक जाएगा, लाइन के नीचे की लकड़ियों को चूर-चूर कर देगा। और बिलकुल इसी जगह पर लाइन मुड़ गई थी, और ऊँचा बाँध है, यहीं इंजिन और गाड़ियाँ सब एक साथ नीचे गिर पड़ेगी। सत्तर फ़ीट ऊँचे से ट्रेन गिर पड़ेगी! तीसरे दर्जे की गाड़ियाँ ठसा-ठस भरी होंगी। उसमें छोटे बच्चे भी होंगे, वे शान्त भाव से बेफिक्र बैठे हुए हैं। नहीं, नहीं, वह अपनी गुमटी में जाकर फिर लौटने का समय नहीं पा सकेगा। सेमेन ने अपने घर जाने की इच्छा त्याग दी।
वह घूम कर और भी तेजी से कटी लाइन की ओर दौड़ा। उसका सिर चक्कर काट रहा था। क्या होगा? वह कुछ मी सोचे-समझे कटी लाइन तक दौड़ता हुआ आया। लकड़ी के टुकड़े चारों तरफ बिखरे पड़े थे। उसने झुक कर एक लकड़ी उठा ली। क्यों उठा ली यह वह नहीं जानता था। और दौड़ता हुआ आगे बढ़ा। उसे लगा, मानो ट्रेन निकट आ रही है। उसने इंजिन की सीटी की आवाज सुनी, लाइन को काँपते सुना! लाइन काँप रही थी। उसकी देह में और दौड़ने की शक्ति नहीं थी। सांघातिक जगह से करीब सात सौ फ़ीट आगे जाकर वह रुका।
सहसा उसके दिमाग में एक बात आई। उसने अपनी टोपी उतार कर उसमें से रूमाल निकाला; पैर के बूट से छुरी निकाल ली, फिर ईश्वर से आशीर्वाद की प्रार्थना की। फिर छुरी से अपनी बाई बाँह पर एक गहरी चोट की, गरम लहू का फव्वारा छूट निकला। उस खून में रूमाल को डुबो लिया, फिर रूमाल को फैलाकर बराबर किया। उसे लकड़ी से बाँधा; एक लाल झंडी बन गई। वह झंडी हिलाने लगा! तब ट्रेन दीख रही थी। पर शायद इंजिन चलाने वाला उसे नहीं देख पाया था। पर सिर्फ सात सौ फीट दूर ऐसी एक भारी ट्रेन को वह किसी तरह नहीं रोक सकेगा।
उसकी बाँह से लगातार खून बह रहा था। सेमेन ने चोट पर हाथ दबा रखा; पर उससे भी खून बन्द न हुआ। अवश्य ही वह चोट गहरी हो गई है। उसने चारों तरफ अँधेरा देखा। उसका सिर घूम रहा था। उसकी आँखों के सामने मानो कई काली मक्खियाँ चक्कर काट रही थीं। फिर एकदम सब अँधेरा हो गया; इंजिन के घंटे की तेज़ 'टिंग-टिंग ध्वनि उसके कानों में सुनाई दे रही थी। उसने और ट्रेन देख नहीं पाई, उसने और ट्रेन का शब्द नहीं सुन पाया। केवल एक बात उसके दिमाग में जागृत हो रही थी, “मैं और खड़ा नहीं रह सकता, मैं गिर पडूंगा, झंडी गिरा दूंगा; मेरे ऊपर से ट्रेन चली जाएगी। परमात्माः परमात्मा! मुझे बचाओ, मुझे बचाने के लिए किसी को भेजो..." उसकी अन्तरात्मा बिलकुल खाली हो गई थी। झंडी हाथ से खिसक पड़ी! पर बह रक्तमय झंडी जमीन पर नहीं गिरी। एक आदमी के हाथ ने उसे पकड़ लिया, और लाल झंडीआगे बढ़कर ट्रेन के सामने उसे ऊँचा उठाए रखा। इंजिन चलानेवाले ने लाल झंडी देख पाकर इंजिन रोक लिया।
लोग ट्रेन से उतरकर दौड़े हुए आए। घड़ी भर में एक भीड़ हो गई। सबने देखा, एक आदमी खून से लथपथ बेहोश उनके सामने पड़ा है और एक आदमी उसके बग़ल में खड़ा है, जिसके हाथ में लकड़ी में बँधा खून से भीगा एक कपड़े का टुकड़ा है।
वैसिली ने जनता को देखकर सिर झुका लिया। फिर कहा, "मुझे गिरफ्तार करो, मैंने ही लाइन उखाड़ी है!"
वी.एम. गारशिन
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