कहानी सुनना चाहते हो?
मगर एक भी तो शायद याद नहीं है।...चाहे कुछ भी हो?
अच्छा, तो सुनो-
साहित्यिक मंडली के अनुरोध से मैं ड्रेसडेन जा रहा था। मैं कुछ आराम के साथ सफ़र करना चाहता था, जबकि
ख़र्च कोई दूसरा देता है। इसीलिए सोने के साथ एक
अव्वल दर्जे का कमरा मैंने रिज़र्व करा लिया था, और एक दिन पहले ही सामान वगैरह
ठीक-ठाक कर रखा था।
रात को नौ बजे म्यूनिख स्टेशन से ड्रेसडेन की ट्रेन छूटती थी। आठ बजने के पहले
ही मैं स्टेशन पर आ गया था।
चारों तरफ बेहद भीड़ थी। यात्री, कुली और सामानों से प्लेटफ़ार्म भरा था। कुली
के सिर पर सामान लदवाकर, अपने कमरे के सामने खड़ा होकर मैं भीड़ की ओर देख
रहा था।
कुली ने सामानवाली गाड़ी में बॉक्स रखा। फिर मेरे क़ीमती बॉक्स पर न जाने कितने बॉक्स और बिस्तर लद गए।
कीमती क्यों? उन बॉक्स के भीतर मेरे नए उपन्यास की पांडुलिपि थी। खैर, कोई घबराहट की बात नहीं थी।
एक टिकट-चेकर एक बूढ़े के पीछे दौड़ा। उसने तीसरे दर्जे का टिकट लेकर ऊँचे
दर्जे की गाड़ी के पायदान पर पैर रखा था।
एक सज्जन मेरे सामने चहलकदमी कर रहे थे। उनके साथ एक छोटा-सा खूबसूरत कुत्ता था; उसके गले में चाँदी
की जंजीर थी। वह आदमी चेहरे और चाल-चलन से कोई अमीर ज़मींदार मालूम हो रहा था। टिकट-चेकर बड़े
अदब से सलाम करके बातें कर रहा था।
में उनकी कहनी से धक्का लगा, मगर उन्होंने सज्जनता के ख्याल से दुख प्रकट करना
ट्रेन छूटने का समय होते ही वह सज्जन मेरे बगलवाले डिब्बे में चढ़े।
मेरे शरीर मैं कुछ आश्चर्य से देखने लगा; मगर उन्होंने मुझको और भी
चकित करके, कुत्ते को लेकर सोने के कमरे (sleeping car) में प्रवेश किया।
सभी जानते हैं कि कुत्ता लेकर सोने के कमरे में जाना अनुचित है, क़ानून के खिलाफ़ है।
मगर उन्होंने परवाह नहीं की।
कमरे में जाकर दरवाज़ा बन्द कर दिया।
सीटी बजी। इंजिन ने उसका जवाब दिया।
चलने लगी। मैं रोशनी के नीचे एक किताब लेकर बैठ गया।
टिकट-चेकर आकर खड़ा हो गया। मैंने टिकट निकाल कर उसको दिखलाया। फिर 'शुभरात्रि' कहकर वह
जमींदार के कमरे का दरवाजा खटखटाने लगा। कई बार खटखटाने के बाद भीतर से क्रोधभरी आवाज़ आई, “रात
को कौन मुझे द्रिक कर रहा है?"
टिकट, चेकर बहुत विनय के साथ कहने लगा, एक क्षण भर में वह टिकट देख लेगा; यह उसका आवश्यक कर्तव्य
है, इत्यादि।
कुछ क्षण के बाद दरवाज़ा ज़रा-सा खुला, और चेकर के मुँह के सामने एक टिकट आ गया। चेकर टिकट
लौटाकर, क्षमा-प्रार्थना करके चला गया।
मैं विस्मय से अवाक्हो कर बैठा था। नहीं तो शायद मैं कह देता कि उनके साथ एक कुत्ता था।
थोड़ी देर के पश्चात् मैंने किताब बन्द करके सोने का इरादा किया और तकिये
को ठीक करके सोने जा ही रहा था कि ट्रेन लड़ गई। यह घटना मुझे बिलकुल तस्वीर
की भाँति याद है।
सहसा वज्रपात की तरह एक भयानक आवाज़ हुई, और साथ-ही-साथ बड़े जोर का धक्का लगा। मैं उछल कर बेंच
पर से दूर जा गिरा। मेरे दाहिने कन्धे में ऐसी चोट लगी, मानो उसे किसी ने पीस दिया हो।
फिर ट्रेन हिलने लगी। ऐसे ज़ोर से हिल रही थी कि कोई खड़ा नहीं रह सकता
था। फिर ट्रेन उलट गई, शायद यात्रियों के आर्त स्वर ने परमात्मा को जागृत कर दिया
था। ट्रेन रुक गई।
इसके बाद बाहर निकलने के लिए दौड़-धूप, हल्ला, धक्का-मुक्की होने लगी। कब और किस तरह से मैं ट्रेन से
निकलकर खुले मैदान में जाकर खड़ा हुआ, यह ठीक याद नहीं।
उस समय सिर में बड़े ज़ोर से चक्कर आ रहा था। कैसे धक्का लगा? कितने आदमी मरे? चारों ओर इसी तरह के
सवाल होने लगे।
ट्रेन ग़लत लाइन पर जा रही थी। परमात्मा की कृपा थी कि कोई नहीं मरा, मगर
सामानवाली गाड़ी टूट गई थी, बिलकुल चकनाचूर हो गई थी।
यह सुनकर मेरे होश-हवास उड़ गए। मेरे होश-हवास इसलिए उड़ गए कि मेरे उपन्यास की पांडुलिपि
की कोई नक़ल भी नहीं थी!
मैं मन-ही-मन उपन्यास को आदि से अन्त तक दोहराने लगा। मुझे फिर लिखना होगा। मैंने प्रकाशक से पेशगी
रुपया ले रखा था।
इतने में रोशनी लेकर लोग यात्रियों की सहायता के लिए आ गए। चारों तरफ़ रोशनी हो गई। एक विशाल मरे हुए
दैत्य की भाँति ट्रेन उलट कर पड़ी हुई थी।
मैं धीरे-धीरे सामानवाली गाड़ी की ओर बढ़ा। देख-सुनकर पता लगा कि सिर्फ़
बाहर का हिस्सा टूट गया है। भीतर का सामान जैसा का तैसा था। परमात्मा को मैंने
धन्यवाद दिया।
हम सब के सब सहायता की गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठे रहे। साहित्यिक, राजनीतिक,
गरीब, मज़दूर-अनेक के साथ मेरा परिचय हो गया।
ट्रेन आ गई। जिसने जो डिब्बा पाया उसी में चढ़ गया। मेरे पास अव्वल दर्जे का टिकट था। मैंने जाकर देखा कि
सभी अव्वल दर्जे में बैठना चाहते थे। उसी डिब्बे में सबसे ज्यादा भीड़ थी।
किसी तरह डिब्बे में जाकर एक कोने में बहुत कठिनाई के साथ जगह बनाकर बैठ गया। फिर अपने सामने
किसको देखा? वही ज़मींदार जो कुत्ता लेकर ट्रेन में सवार हुए थे।
अब वह कुत्ता साथ में नहीं था; शायद मालगाड़ी में भेज दिया होगा। उनके बैठने की जगह बहुत तंग थी। अब
उनका अव्वल दर्जे का टिकट किसी काम का नहीं था। आकस्मिक परिस्थिति के सामने छोटे-बड़े का विभेद
बिलकुल गायब हो गया था।
वे बड़े तीव्र शब्दों में इस तरह के साम्यवाद के विरुद्ध टिप्पणी करने लगे। एक
लुहार जो उनके सामने बैठा था, बोला-“जनाब! बैठने के लिए जगह मिली है, यही
गनीमत समझिए।"
ज़मींदार ने अपना क्रोधित मुँह दूसरी ओर फेर लिया। मैं हँसी रोक कर उस लुहार
से बातें करने लगा ।
- टॉमस मान
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