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 hindi story - दार्शनिक की दुर्दशा

hindi story - दार्शनिक की दुर्दशा

मेमनन ने उस दिन तत्त्वज्ञानी होने की ठान ली। ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो कभी-न-कभी ऐसा ही अद्भुत विचार कर लेते हों। मेमनन मन-ही-मन सोचने लगा। पूर्ण रूप से सुखी होने के लिए, मझे केवल काम, क्रोध, लोभ और अन्य दुर्गुणों से दूर रहना है। सभी को मालूम है, इससे अधिक सहज और क्या हो सकता है? प्रथम तो मैं किसी स्त्री से प्रेम नहीं करूँगा; मैं जब किसी सुन्दर स्त्री को देखूगा, तो मन-ही-मन सोचूँगा, इस चेहरे पर एक दिन झुर्रियाँ पड़ जाएँगी, इन आँखों के चारों तरफ धब्बे पड़ेंगे, सिर के सारे बाल सफेद हो जाएँगे। मुझे सिर्फ यह सोचना होगा कि वह पीछे कैसी हो जाएगी। बस, तब फिर कोई सुन्दर मुखड़ा मुझे मोह नहीं सकेगा।

दूसरी बात यह है कि मैं सदा संयमी रहूँगा। किसी तरह भी कोई मुझे अधिक शराब नहीं पिला सकेगा। मैं सदा याद रखूगा कि अधिक शराब पीने से क्या हानियाँ होती हैं, जैसे सिर-दर्द, बदहज़मी, मानसिक तथा शारीरिक पतन और समय की बर्बादी। फिर स्वास्थ्य अटूट रखने के लिए भोजन की जितनी आवश्यकता है, उतना ही खाऊँगा। तब मेरा स्वास्थ्य सदा एक-सा रहेगा, मेरा जीवन सदा पवित्र और उज्ज्वल रहेगा। यह सब करना इतना सहज है कि इसकी सफलता के लिए अधिक परिश्रम का प्रयोजन नहीं।

मेमनन ने मन-ही-मन कहा, अपनी सम्पत्ति को कायम रखने के बारे में मुझे कुछ सोचना चाहिए, फिर मेरी चाह भी थोड़ी है, और मेरा सारा धन शहर के विश्वास-योग्य महाजन के पास अच्छे सूद पर जमा है। परमात्मा की बड़ी कृपा है कि चैन से मेरी गुज़र हो जाएगी। मैं कभी भी अदालत या राजदरबार में नहीं जाऊँगा, किसी से भी मैं ईर्ष्या नहीं करूँगा, और न कोई मुझसे ईर्ष्या करेगा। यह सब करना इतना सरल है, तो अपने सुख के लिए क्यों न करूँ? वह सोचता गया-मेरे इतने मित्र हैं, सबसे मैं मित्रता बनाए रखूगा, क्योंकि हम लोग किसी भी बात पर न लड़ेंगे। वे कुछ भी करें या बोले, मैं नाराज़ नहीं होऊँगा; और वे भी मुझसे उसी तरह व्यवहार करेंगे। यह सब करने में कौन-सी कठिनाई है?

अपनी कोठरी में बैठे-बैठे इसी तरह तत्त्व-विचार करके मेमनन ने खिड़की से बाहर सिर बढ़ाया। उसने देखा, दो औरतें उसके मकान के पास टहल रही हैं। एक अधेड़ थी, और सुखी मालूम पड़ती थी; दूसरी एक सुन्दर युवती थी, जो दुख से विह्वल दीख रही थी। वह लम्बी साँसें ले रही थी और रो रही थी; पर इससे वह और भी सुन्दर मालूम पड़ती थी। हमारे तत्त्वज्ञानी का हृदय घबरा उठा। यह निश्चय है कि उस युवती का सौन्दर्य देखकर नहीं, क्योंकि उसने दृढ़-संकल्प कर लिया था कि इसके लिए वह बेचैनी अनुभव नहीं करेगा, बल्कि उसका दुख देखकर, वह अपनी कोठरी से बाहर निकलकर तत्त्वज्ञान द्वारा युवती को ढाढ़स देने लगा। तब वह सुन्दरी सरलता के साथ, और बहुत प्रभावपूर्ण ढंग से उससे कहने लगी कि कैसे एक काल्पनिक चाचा ने उसको नुकसान पहुँचाया है, किस चालाकी से वह उसकी काल्पनिक सम्पत्ति हड़प रहा है, और बताने लगी कि उसके डर की आशंका से उसे ज़रा भी चैन नहीं मिलता।

“आप जैसे बुद्धिमान् आदमी," वह बोली, “अगर कृपा करके मेरे घर चलकर मेरी परिस्थिति पर ज़रा ध्यान दें, तो शायद इस घबराहट से मैं रिहाई पा जाऊँ।" उसके साथ चलकर त त्त्वज्ञान की दृष्टि से उसकी हालत की जाँच करने और उसे परामर्श देने को मेमनन तैयार हो गया।

उस व्यथित युवती ने उसे एक सुगन्धित कमरे में ले जाकर एक बड़े सोफे पर अपने पास बैठाया। वे आमने-सामने थे। युवती उत्सुकता के साथ अपनी कहानी कहती जा रही थी, और वह बहुत आग्रह से सुनता जा रहा था। आँखें नीची किए युवती बोल रही थी। उन आँखों से कभी-कभी दो-एक बूँद आँसू टपक पड़ते थे, और जब वे आँखें ऊपर उठतीं, तो मेमनन की आँखों से मिल जाती। उसकी बातचीत कोमलता से पूर्ण थी, और जितनी अधिक उनकी आँखें मिलने लगीं, बातें और भी कोमल होती गईं। मेमनन का हृदय करुणा से भर गया; ऐसी दुखिया युवती का उपकार करने के लिए वह प्रतिक्षण उत्सुक होता जा रहा था। धीरे-धीरे बातचीत के जोश में वे आमने-सामने नहीं बैठे रह सके, वे एक-दूसरे के पास बैठ गए। मेमनन उससे इतना लगाव से बातें करने लगा और उसके परामर्श के शब्द इतने मीठे होते गए कि अन्त में वे दोनों काम के बारे में बातें करना भूल गए, और उन्हें पता ही नहीं रहा कि किस विषय पर जा रहे हैं।

ऐसे ही समय पर, जैसा कि तय था, चाचा साहब एकाएक कमरे में आ गए और आते ही बोले, "छिपे-छिपे प्रेम हो रहा है। आज दोनों ही को मार डालूँगा। मेरे घर की बदनामी!" युवती तो खिसक गई। वह जानती थी कि एक मोटी रकम बिना दिए वह क्षमा नहीं पाएगा। फिर जेब में जो कुछ धन था, चाचा को देकर मेमनन ने किसी तरह अपनी जान बचाई।

शरम और घबराहट से मेमनन अपने घर लौट आया। उसे उसी दोपहर को कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ भोजन करने के लिए निमन्त्रण-पत्र मिला था। सोचा-अगर घर पर रहूँ, तो यह लज्जाजनक घटना मेरे हृदय पर छाई रहेगी, और मैं कुछ भी खा-पी नहीं सकूँगा, इससे मेरी तबीयत खराब हो जाएगी। बेहतर है कि अपने मित्रों के पास जाकर दिल-बहलाव कर आऊँ। मित्रों के हँसी-मजाक में अपनी इस सुबह की बेवकूफ़ी को भुला सगा। इसी तरह निश्चय कर वह मित्रों की गोष्ठी में गया। उसे उदास देखकर मित्र लोग शराब परोसकर उसे खुश करने के लिए ज़ोर देने लगे।

तब तत्त्वज्ञानी मेमनन मन-ही-मन तर्क कर इस नतीजे पर पहुँचा कि कम शराब यानी संचत भाव से अगर शराब पी जाए, तो स्वास्थ्य और चित्त दोनों ही के लिए बहुत गुणकारी है। यह सोचकर शराब पीकर वह मतवाला हो गया। भोजन के बाद जुआ शुरू हो गया। उसने जुआ खेला, और जो कुछ उसकी जेब में था, वह सब हार तो गया ही, ऊपर से एक, मोटी रकम कर्ज भी रह गई। खेल की किसी बात पर झगड़ा चला। वाद-विवाद करने चाले गरम हो गए। एक घनिष्ठ मित्र ने पॉस का बॉक्स उठा कर उसके सिर पर दे मारा और उसकी एक आँख नोच ली। नशे और बिना पैसे की हालत में, एक आँख खोकर घर आकर वह सो गया।

सोने के बाद जब-कुछ स्वस्थ हुआ, तो उसने महाजन से कुछ रुपए लाने के लिए नौकर को भेजा: क्योंकि उसे उसी दिन अपने घनिष्ठ मित्र का कर्ज़ अदा करना था। नौकर ने लौटकर कहा कि महाजन ने आज सुबह ही अपने आपको दिवालिया घोषित कर दिया है, और सैकड़ों परिवार, जो उस महाजन के पास अपना धन जमा कर चुके थे, तबाह हो गए हैं। यह सुनकर मेमनन के होश-हवास उड़ गए। अपनी आँख पर पट्टी बाँधकर एक अर्जी लिखकर, वह राजदरबार में दिवालिया के विरुद्ध न्याय की प्रार्थना करने के लिए निकल पड़ा।

राजदरबार में उसने कई रमणियों को बैठे देखा। वे बहुत खुश नज़र आ रही थीं। उनमें से एक ने, जो उसे कुछ जानती थी, उसे देखकर बुरे ढंग से मज़ाक किया। दूसरी एक रमणी ने, जिससे उसकी घनिष्ठता थी, कहा, “नमस्ते मिस्टर मेमनन ! अच्छी तरह तो हो न? पर मिस्टर मेमनन, आपने अपनी एक आँख कैसे खोई?" यह कहकर वह खिलखिला कर हँस पड़ी और जवाब के लिए न रुककर पीछे घूमकर चली गई।

मेमनन ने अपने को एक कोने में छिपा रखा था और राजा के पैरों के पास अपने अर्जी पेश करने के मौके की प्रतीक्षा करता रहा। आखिर वह मौका मिला, और उसने तीन बार ज़मीन चूमकर वह अर्जी पेश की। राजा ने उस अर्जी को और एक अफ़सर को उस पर कार्यवाही करने का हुक्म दिया।

अफ़सर उसे अलग ले जाकर बड़े रूखेपन से बोले, "अरे, ओ काने राजा। सुनो, मेरे पास न आकर तीधे राजा के पास जाकर तुमने बड़ी भारी बेवकूफ़ी की है और तुम्हारी इतनी मजाल कि उस ईमानदार दिवालिया के विरुद्ध नालिश करने आए हो, जो मेरा प्रिय-पात्र है, जो मेरी पत्नी का भांजा है! अगर भलाई चाहते हो, तो इस मामले में चुप हो जाओ, नहीं तो, यह याद रखो, तुम्हारी दूसरी आँख भी नहीं रहेगी.

अपनी कोठरी में बैठे-बैठे ममनन ने निश्चय किया था कि वह स्त्रियों से दूर रहेगा शराब नहीं पिएगा, जुआ नहीं खेलेगा, लड़ाई-झगड़ा नहीं करेगा, राजदरबार में नहीं जाएगा, पर चौबीस घंटे के थोड़े से समय के भीतर वह एक मन-मोहिनी सुन्दरी के द्वारा ठगा गया, शराब पीकर मतवाला हुआ, जुआ खेला, झगड़ाकर बैठा, आँख खोई और राजदरबार में गया, जहाँ वह मूर्ख बना और बरी तरह बेइज्जत हुआ! "

विह्वल होकर दुख से हृदय को टुकड़े-टुकड़े करके मेमनन अपने घर लौटा। वह घर में घुस ही रहा था, कि देखा, कर्ज अदा न करने के कारण उसके घनिष्ठ मित्र सरकारी नौकरों की सहायता से उसका सामान उठाकर ले जा रहे हैं। तब शोक में डूबकर वह जमीन पर बैठ गया। वहीं उसने सुबह की उस मन-मोहिनी युवती को फिर देखा; वह अपने चाचा के साथ टहल रही थी। मेमनन की आँख पर पट्टी देखकर वे दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। रात हो रही थी। मेमनन ने अपने मकान की दीवार के पास घास-पात बिछा कर बिस्तरा बनाया। उसे बुखार आ गया था और वह बेहोश होकर वहाँ पड़ा रहा।

इसी समय स्वप्न में स्वर्ग से एक देवदूत आए। वह अद्भुत प्रकाश से उज्ज्वल थे। उनके छह पंख थे, पर न उनके पैर थे, न सिर और न पूँछ; उनकी कोई शक्ल ही नहीं थी।

मेमनन ने पूछा, "आप कौन हैं? "

वह बोले, “मैं एक देवदूत हूँ।"

मेमनन ने कहा, "तब तो आप मुझे मेरी आँख, मेरा स्वास्थ्य, मेरा धन और मेरा ज्ञान लौटा दीजिए।" और विस्तारपूर्वक कहा कि उसने इन सबको कैसे खोया।

देवदूत बोले, “हम जहाँ रहते हैं, वहाँ इस तरह कोई भी कुछ नहीं खोता है। "

दुखी मेमनन ने पूछा, “आप कहाँ रहते हैं?"

देवदूत बोले, “सूर्य से ढाई करोड़ कोस दूर सिरियन नाम के एक छोटे नक्षत्र में रहता हूँ। वह नक्षत्र यहाँ से दीख पड़ता है। "

मेमनन ने कहा, “वह बहुत सुन्दर देश होगा! क्या वहाँ सचमुच स्त्रियों के द्वारा लोग ठगे नहीं जाते? कोई घनिष्ठ मित्र जुए में रुपया नहीं जीतता और आँख नहीं नोच लेता! वहाँ बेईमान दिवालिया नहीं है, और न सरकारी अफ़सर अन्याय करके बेइज्जती करते हैं?"

नक्षत्रवासी बोले, “नहीं, तुम जो कुछ कह रहे हो, हमारे देश में वह सब नहीं है। हमारे यहाँ कोई स्त्रियों से ठगा नहीं जाता, क्योंकि वहाँ कोई स्त्री ही नहीं है। हम लोग कुछ भी नहीं खाते-पीते, हमारे यहाँ सोना-चाँदी नहीं होता, इसलिए कोई दिवालिया नहीं है, हम लोगों की आँखें नोच नहीं ली जातीं, क्योंकि तुम लोगों की तरह हमारे शरीर नहीं हैं। हमारे यहाँ अफ़सर नहीं होते, क्योंकि हम सब वहाँ एक से हैं। "

मेमनन ने तब पूछा, "स्त्रियों के बिना और बिना खाए-पिए आप लोगों का समय कैसे कटता होगा? "

उस देवदूत ने कहा, "दूसरे लोगों को देखते, जो कि हम लोगों के अधिकार में हैं। यह देखो न, ढाढ़स देने के लिए में आया हूँ। "

मेमनन बोला, “हाय! आप कल आकर मुझे चेतावनी क्यों न दे गए? तब तो मैं मुसीबतों में नहीं पड़ता। "

देवदूत ने कहा, "कल मैं तुम्हारे बड़े भाई के पास गया था। वह तुमसे भी दयनीय दशा में था। वह सम्राट के दरबार में काम करता है, उसने एक छोटी-सी ग़लती के लिए अपनी दोनों आँखें खोई, और अब जंजीर से बँधा हुआ अन्धकूप में पड़ा है।"

मेमनन ने कहा, "कैसा दुर्भाग्य है। बड़ा भाई दोनों आँखों से अन्धा, छोटे के। एक आँख नहीं। बड़ा अन्धकूप में पड़ा है, छोटा घास-पात पर!"

देवदूत ने कहा, "जल्दी ही तुम्हारे दुख का अन्त होगा। तुम अपनी आँख तो वापस नहीं पाओगे, पर अगर तुम निर्दोष तत्त्वज्ञानी होने का विचार छोड़ दो तो फिर काफ़ी सुखी हो सकोगे।"

मेमनन ने पूछा, "तब क्या यह असम्भव है?"

देवदूत ने कहा, "हाँ, यह उतना ही असम्भव है, जितना कि आदर्श बुद्धिमान, बलवान् और सुखी होना। हम स्वयं भी इससे बहुत दूर है! एक लोक ऐसा है, जिसमें यह सब असम्भव है। किन्तु आकाश में ऐसे सैकड़ों-हजारों लोक हैं, जहाँ प्रत्येक बात क्रम से चलती है। पहले की अपेक्षा दूसरे में भोग-विलास और तत्त्वज्ञान कम हैं। दूसरे की अपेक्षा तीसरे में कम हैं। इसी प्रकार आगे भी, यहाँ तक कि अन्तिम लोक में सब कोई पूर्ण रूप से मूर्ख हैं।"

मेमनन ने कहा, “तब तो मैं समझता हूँ कि इस पृथ्वी को इन सब लोकों का पागलखाना समझना चाहिए।"

देवदूत बोले, “एकदम ऐसी बात नहीं है, पर लगभग ऐसा ही है। प्रत्येक वस्तु ठीक स्थान पर ही होनी चाहिए।"

“किन्तु तब फिर क्या वे कवि और दार्शनिक गलती पर हैं, जो कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु श्रेष्ठ है?" मेमनन ने पूछा।

देवदूत ने उत्तर दिया, "नहीं, वे ठीक कहते हैं, यदि हम प्रत्येक वस्तु को सारे विश्व के साथ क्रम-सम्बन्ध से देखें।"

"ओह! मैं इस बात पर तब तक विश्वास नहीं करूँगा जब तक मुझे मेरी आँख वापस न मिल जाए।" बेचारे मेमनन ने कहा।

- वाल्टेयर

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