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यह  कहानी  एक बेटी का अपने पिता के लिए निस्वार्थ प्रेम एवं त्याग की कहानी है ।
 
नमस्कार दोस्तो आज की कहानी महान लेखक विलियम शेक्सपीयर की रचना  king lear है । 

तो कहानी को शुरू करते है ।

बहुत समय पहले की बात है कि इंग्लैंड में लियर नाम का एक राजा राज करता था। राजा के महल थे, रानियां थीं, नौकर थे, नौकरानियां थीं, सब कुछ था, मगर उसकी कोई संतान न थी। 

इसी चिंता में वह सदा डूबा रहता था। भगवान की कृपा से ढलती उम्र में उसके घर तीन लड़कियां हुईं। तीनों एक से एक बढ़कर रूपवती थीं। सबसे बड़ी का नाम था 'गोनरिल', मंझली का नाम रीगन' तथा सबसे छोटी का नाम'कोर्डीलिया' था। 

राजा सबको अपने बच्चों के समान समझता और लाड़-प्यार से पालता था किंतु कोडीलिया को सबसे ज्यादा प्यार करता था। ज्यों-ज्यों वे बड़ी होती गईं, राजा उनके लिए अच्छे से अच्छा वर ढूंढ़कर उनका ब्याह करता गया। 

इस तरह गोनरिल का विवाह अलबनी के राजकुमार के साथ और रीगन का ब्याह कार्नवाल के सुंदर राजकुमार के
साथ हो गया। 

अब केवल सबसे छोटी राजकुमारी कोर्डीलिया कुंवारी रह गई। उसके विवाह हेतु भी दूर-दूर से संदेश आते थे किंतु फ्रांस का राजा और बरगंडी का राजकुमार, ये दोनों ही उसे बहुत चाहते थे। ये दोनों अपनी-अपनी उम्मीद पूरी आने तक राजा लियर के दरबार में ही रहने लगे थे।

उधर राजा लियर बूढ़ा हो चला था। उसके नैन-प्राण शिथिल हो चुके थे तथा राजकाज के कामों से उसका जी भर गया था। उसने सोचा, क्यों न मैं राजपाट अपनी लड़कियों को सौंपकर जिंदगी की अंतिम घड़ियां शांति से बिताऊं। 

यह सोचकर उसने तीनों राजकुमारियों को अपने पास बुलाया और कहा- "प्यारी बेटियो! तुम देख रही हो कि मैं अब बूढ़ा हो चुका हूं। इन पसलियों में अब इतनी ताकत नहीं कि राजकाज का भार उठा सकें इसलिए मैं चाहता हूं कि यह भार तुम्हें सौंपकर मैं अपने परलोक की भी कुछ फिक्र करूं किंतु राज्य का बंटवारा करने से पहले मैं तुम तीनों की जुबानी सुनना चाहता हूं कि कौन मुझे कितना प्रेम करती है। उसी के अनुरूप मैं राज्य के तीन
हिस्से करके तुम तीनों में बांट देना चाहता हूं।"

यह सुनकर सबसे पहले गोनरिल ने कहा- "पिताजी! आप मुझे इतने प्यारे लगते हैं जितनी कि विश्व की कोई भी वस्तु नहीं।"

राजकुमारी की यह बात सुनकर राजा बड़ा खुश हुआ और उसने उसी वक्त गोनरिल को राज्य का एक बड़ा हिस्सा देकर रानी बना दिया।

बात बनाने में तो मंझली राजकुमारी अपनी बड़ी बहन से भी कहीं बढ़कर थी। उसने कहा-"पिताजी ! गोनरिल ने तो दो अक्षरों में कहकर आपके लिए अपना इतना प्यार प्रकट कर दिया है, मगर मेरे हृदय में आपके प्रति इतना अधिक प्यार है कि अगर मैं जीवनभर भी बोलती रहूं तो उसे प्रकट न कर सकू। आपके प्यार के अतिरिक्त मुझे
दुनिया में कुछ सूझता ही नहीं। मैं आपका प्यार पाने के लिए अपना धन,मन और प्राण न्यौछावर कर सकती हूं।'

रीगन की ये बातें सुनकर राजा फूला न समाया तथा उसने पहले से भी अधिक खुश होकर राज्य का दूसरा हिस्सा रीगन को दे दिया।

अब कोर्डीलिया की बारी आई। वह राजा की सबसे लाड़ली पुत्री थी इसलिए राजा को विश्वास था कि वह अपनी बड़ी बहनों से अधिक प्यारी बातें कहेगी।

कोई और वक्त होता तो राजा का संकेत पाते ही कोर्डीलिया दौड़कर राजा के गले से लिपट जाती तथा घंटों मीठी-मीठी बातें करती न थकती। मगर अब उसके मुंह से एक शब्द भी कहना भारी हो गया था क्योंकि जब उसने देखा कि राज्य पाने के लोभ  से गोरिल तथा रीगन ने आकाश-पाताल की बातें जोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी
तथा भोला राजा उनकी बात को भी सत्य मान बैठा है तो उसके सच्चे प्यार को बड़ी ठेस पहुंची। 

उसने अपने मन की बात दिल में ही रखकर सीधे-सादे शब्दों में सिर्फ इतना ही कहा--"पिताजी ! मैं आपके साथ सिर्फ उतना प्यार करती हूं, जितना कि एक पुत्री को अपने पिता से करना चाहिए, न इससे ज्यादा, न कम।'

अपनी सबसे लाड़ली पुत्री के मुंह से ऐसी हल्की बात सुनकर पहले तो राजा उसके मुंह की तरफ देखता ही रह गया, फिर धीमी आवाज में बोला- कहने से पहले एक बार फिर सोच लो। मैं तुम्हें अपनी गलती सुधारने का एक और मौका देता हूं।"

यह सुनकर कोर्डीलिया ने सिर झुकाकर बड़े मीठे स्वर में कहा- "पिताजी ! मैंने जो कुछ निवेदन किया है, वह सोच-समझकर किया है। जैसा मेरे मन में था, मैंने वैसा ही वाणी से कह दिया है। मैं नहीं चाहती कि अपनी बहनों की भांति प्यार की झूठी कसमें उठाऊं तथा ऐसी बातें कहूं जिन्हें मैं निभा नहीं सकती।

आप ही सोचिए कि क्या मेरी बहनों ने ब्याह नहीं किया और क्या वे अपने पति और बच्चों से भी प्यार नहीं
करती? फिर भला किस मुंह से उन्होंने यह कह दिया कि वे आपके अतिरिक्त किसी और से प्रेम करती ही नहीं? आखिर मेरा भी कभी ब्याह होगा और मेरा पति भी मेरे प्यार का हिस्सेदार होगा इसलिए मैंने यह कहा कि मैं आपसे उतना ही प्यार करती हूं, जितना कि एक लड़की को अपने पिता से करना चाहिए। 

वैसे आप मेरे पिता हैं तथा मेरे जन्मदाता हैं। जिस लाड़-प्यार से आपने मुझे पाला-पोसा तथा बड़ा किया, उसे मैं
जिंदगी-भर नहीं भुला सकती। मैं अब तक आपकी लाड़ली रही हूं। मैंने आपकी आज्ञा का एक शब्द भी कभी नहीं मोड़ा और सदा सच्चे मन से आपको प्यार करती रही हूं और आगे भी अंतिम पल तक करती रहूंगी किंतु मुझसे यह न होगा कि मैं अपने ही पिता के समक्ष प्यार के ढोंग रचकर उसे धोखा दे दूं।"

कोर्डीलिया की इस सादगी ने जलती आग में घी का काम किया। राजा का गुस्सा और भी भड़क उठा और उसने आवेश में भरकर उसी वक्त राज्य का तीसरा हिस्सा भी दोनों बड़ी राजकुमारियों में बांट दिया। बेचारी कोर्डीलिया बेकसूर ही पिस गई थी। उसे राज्य के हिस्से में से एक तिनका भी न मिला था। 

राजा ने अपने निर्वाह हेतु दोनों राजकुमारियों के सामने यह शर्त रखी कि जब तक मैं जिंदा हूं, अपने एक सौ अमीरों को साथी के रूप में अपने पास रखूगा। मेरी तथा मेरे इन साथियों की सेवा करना तुम दोनों का कर्त्तव्य होगा। मैं एक महीना बड़ी राजकुमारी और एक महीना मंझली राजकुमारी के महल में रहा करूंगा। दोनों राजकुमारियों ने सिर झुकाकर राजा की आज्ञा को शिरोधार्य किया।

राजा के दरबारी मन ही मन बुदबुदाए- 'राजा की अक्ल भी सठिया गई है, जो एक निरपराध राजकुमारी को इतना कठोर दंड दे रहा है।' मगर राजा के सामने मुंह खोलने का किसी में भी साहस न हुआ। पूरे दरबार को चुप्पी साधे देखकर कांत से न रहा गया। 

वह राजा का सबसे विश्वासपात्र सामंत था। उसने राजा को नम्र शब्दों में, मगर स्पष्ट कह दिया कि जिन्हें वह प्रेम की मूर्तियां समझे बैठा है, वे भीतर से खोखली हैं तथा जिसे वह अपराधिनी कहकर ठुकरा रहा है, वही उससे सच्चा प्रेम करती है।

कांत की बात को राजा हमेशा ब्रह्मवाक्य के समान सत्य समझता था, मगर आज वह भी उसे विष की तरह कड़वी लगने लगी। उसने कोर्डीलिया से पूर्व कांत को ही देश से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया। बेचारा कांत कोर्डीलिया को ईश्वर के सहारे छोड़कर किसी अनजाने देश की ओर चल दिया।

अब राजा ने कोर्डीलिया के दोनों आशिकों को बुलवाया और उनसे पूछा- "राजकुमारो ! क्या अब भी तुम कोर्डीलिया से प्यार करते हो? अब वह अपराधिनी है, कंगाल है और दर-दर की भिखारिन है। तुममें से जो अब भी ब्याह
करना चाहता है, वह आगे आए।"

यह सुनकर बरगंडी के राजकुमार ने स्पष्ट कह दिया-"मैं तो एक राजकुमारी से विवाह करने के लिए आया था, भिखारिन से नहीं।"

यह सुनकर सबके देखते ही देखते फ्रांस का राजकुमार आगे बढ़ा। वह कोर्डीलिया के हाथ को अपने हाथ में लेकर बोला--"चलो ! मेरे साथ चलकर खूबसूरत फ्रांस देश की साम्राज्ञी बनो। यह देश तुम्हारे रहने के काबिल नहीं।

"कोर्डीलिया ने बरसती आंखों से अपने प्यारे पिता से विदा ली और बहनों की ओर देखकर कहा- "लो बहनो,
मैं तो चली, मगर ध्यान रखना कि मेरे पीछे पिताजी को जरा भी कष्ट न होने पाए।"

गोनरिल ने चिढ़ाते हुए कहा- "बस-बस। अब रहने भी दे। तू अपने दूल्हे को खुश करने की सोच। हम खुद खूब जानती हैं कि अब हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं।"

कोर्डीलिया से अब और सुनते न बना। वह दिल ही दिल में पिता के कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हुई वहां से विदा हुई।

इधर शर्त के अनुसार राजा लियर अपने अमीरों के साथ बड़ी राजकुमारी गोनरिल के महल में रहने लगा था। उसे वहां रहते अभी महीना पूरा भी न होने पाया था कि गोनरिल के रंग-ढंग बदलते हुए दिखाई दिए। दोनों को मिले हुए कई-कई दिन बीत जाते थे। राजा मिलना चाहता तो वह सौ-सौ बहाने बनाती।वह खुद उससे मिलने जाता
तो माथे पर त्यौरियां डालकर बोलती। मतलब यह है कि अब वह उसे 'बुड्ढा' कहकर एक बोझ-सा समझने लगी थी। वह नौकर-नौकरानियों के सामने भी बड़बड़ाती-"न जाने बुढ़ऊ की अक्ल में क्या घुसा है कि इन सौ मुस्टंडों की फौज ही उसका सहारा हैं।"

को मेरे घर में ला बैठाया। महल न हुआ, कबाड़खाना हो गया। वह अपनी उम्र भोग चुका है, अब उसे इन फिजूलखचों से क्या मतलब! उसे अपने लिए दो रोटी से मतलब रखना चाहिए और ईश्वर का नाम लेकर शुक्र करना चाहिए कि बुढ़ापे में हम राजकुमारी को देखा-देखी नौकर-चाकर भी राजा को खिदमत से जी चुराने लगे।
अचरज नहीं कि ऐसा करने के लिए खुद गोनरिल भी उनकी पीठ थपथपाया करती थी। बेचारा राजा पंखकटे पक्षी की तरह असहाय होकर दुख के दिन बिताने लगा था।

उधर, कहने को तो सामंत कांत राजा के आदेश से परदेस चला गया था, लेकिन वह पैनी आंखों से पहले ही देख चुका था कि राजा पर कौन-सी आफत आने वाली है इसलिए सच्चा स्वामिभक्त होने के कारण उसने राजा को गोनरिल तथा रीगन के रहम पर अकेले छोड़ देना उचित न समझा। 

एक दिन वह निर्धन नौकर का वेश बनाकर राजा के पास आया तथा हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसे देखकर राजा को संदेह तक न हुआ कि यह उसका वही पुराना शाही वजीर कांत है। गहरी सांस लेकर उसने
पूछा- "बाबा! क्या चाहते हो?"
कांत ने दीन लहजे में कहा- "श्रीमन नौकरी।'
राजा--"बाबा, नौकरी चाहता है तो किसी रईस के घर जा।अब लियर तो खुद ही दूसरों के टुकड़ों का दास है। वह किसी को नौकर क्या रखेगा? अब धन-धान्य और राजपाट की स्वामिनी गोनरिल है।"
कांत- "महाराज! मुझे धन बिल्कुल नहीं चाहिए। मैं रूखी-सूखी खाकर धरती पर ही पड़ा रहूंगा। मुझे सिर्फ पेट का सहारा चाहिए।'
राजा--"क्या कार्य करना जानते हो?"
कांत-"श्रीमन ! रोटी पकाने, झाडू देने, कपड़े धोने से लेकर मेहमानों को खातिरदारी तक सभी कुछ करना जानता हूं। श्रीमन! सुनकर क्या करेंगे, अपनी खिदमत देख लीजिए।"
राजा--"दिखाई तो बड़े निपुण देते हो, मगर तुम्हारा नाम क्या है?"
कांत-"श्रीमन, मुझे कायस कहते हैं।"
इसके बाद राजा न सचमुच उसे दीन कायस समझकर अपना निजी नौकर रख लिया।

अपनी स्वामिभक्ति प्रकट करने के लिए कायसको मौके का अधिक इंतजार न करना पड़ा। संयोगवश पहले ही दिन कायस के देखते ही देखते एक शाही नौकर ने राजा को उल्टे-सीधे उत्तर दिए तथा उसे घूर-घूरकर देखा। 

कायस ने आव देखना न ताव और उस नौकर को जूते मार-मारकर एक नाली में पटक दिया। परेशानी के दिनों
में ऐसे स्वामिभक्त नौकर को पाकर राजा का दिल दिनोंदिन उसकी ओर खिंचने लगा।

कांत के अतिरिक्त पुराने नौकरों में से एक शेखचिल्ली भी राजा के साथ बच रहा था। जब राजा का मन बहुत उदास होता तो वह अपनी अटपटी तुकबंदियां सुनाकर राजा का मन बहलाया करता था। वह राजकुमारियों पर ताने कसता तथा राजा के भोलेपन का मजाक उड़ाया करता था। जैसे-
'एक आंख से हंसें कुवरियां, एक आंख से पोरो।
भोले राजा लुट-लुटकर भी, आंखें मूंदे सोएं।
छोड़ा राजा जी! राजाई, खेलो आंखमिचौनी।
पक्के शेखचिल्ली बन जाओ, जोड़ी सजे सलौनी॥'
ये दोनों सेवक राजा को खुश करने का बहुत यत्न करते, मगर अकेली राजकुमारी ही उसका जी जलाने को बहुत थी।
एक दिन वह झल्लाई हुई कमरे में आई तथा बोली- "पिताजी ! दया करो तथा अपने वजीरों से मेरा पिंड छुड़वाओ। राजदरबार न हुआ चंडूखाना हो गया। यह फिजूलखर्ची तथा भीड़-भड़क्का अब मुझसे और नहीं सहा जाता। बहुत हो चुका। अब इतनी बड़ी फौज के साथ ज्यादा समय तक आपको अपने महल में रखना मेरे बस का नहीं।"

यह सुनकर राजा की नस-नस में आग लग गई तथा उसने उसी समय साईसों को रथ तैयार करने की आज्ञा दी। पलक झपकते ही सब तैयारियां हो गईं। राजा दाएं-बाएं अपने सौ वजीरों सहित मन में बड़ी आशाएं लेकर मंझली राजकुमारी रीगन के महल की तरफ चला। 

विदा होने से पहले राजा ने भर्राए हुए स्वर में ईश्वर से दुआ मांगी- "हे भगवान! यदि तू सच्चा न्यायकारी है तो इस दुष्टा के कभी कोई औलाद न हो। अगर कोई हो भी तो ऐसी कि वह इसे जीवन-भर संताप की उसी आग में
जलाती रहे, जिसमें यह मुझे जला रही है ताकि इसे भी पता चले कि कृतघ्न औलाद का दुख सौ बिच्छुओं के डंक से भी ज्यादा दुखदायी होता है।"

राजा को इस तरह जाते देखकर गोनरिल ने संतोष की सांस ली और झटपट एक खत लिखने बैठी-
'प्यारी बहन रीगन!
ये पंक्तियां लिखते वक्त मेरा हृदय अपने वश में नहीं क्योंकि अभी-अभी
महाराज मुझसे रूठकर तुम्हारे महल की तरफ प्रस्थान कर चुके हैं। शायद तुम
सोचती होगी कि एक महीना खत्म होने से पहले ही मेरे महल से महाराज के चल
देने में मैं ही वजह हूं और मुझसे ही उनकी सेवा में त्रुटि हुई होगी। तुम्हें अथवा किसी
अन्य को भी ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है इसलिए मैं सारी परिस्थितियों से
परिचित कराना चाहती हूं।
तुम जानती हो कि शर्त के मुताबिक महाराज को एक महीना मेरे महल में रहना
चाहिए था। वे एक महीना क्या, जीवन-भर भी रहते तो मुझे कोई आपत्ति न होती,
मगर उनके सौ वजीरों से मैं कैसे निबाहती? एक-एक वजीर एक-एक महाराज
के जैसा है। उनकी सेवा के लिए हर समय सेवकों की पलटनें तैयार रहें,शराब की
बोतले खुली रहें तथा कोष का रुपया पानी की भांति बहता रहे। क्या तुम
होती तो यह सब सहन करती? कभी नहीं तथा मुझे निश्चय है कि कोई भी इसे
मेरी जगह
बर्दाश्त नहीं करता। अब महाराज वृद्ध हैं। उन्होंने अपनी सारी उम्र मनमानी करने
में बिताई है। मानव का एक समय ऐसा भी आता है, जब उसे किसी दूसरे की भी
माननी पड़ती है। उसे दूसरों के नीचे दबकर भी रहना पड़ता है। अब तुम्हीं सोची
कि अगर मैंने महाराज की इस फिजूलखर्ची को रोकने के लिए कहा तो क्या बुरा
किया? महाराज ने इसे अपना अपमान समझा तथा मुझसे रूठकर चले गए। मुझे
अब भी यकीन है कि महाराज मेरी प्रार्थना को कभी न टुकराते अगर उन्हें बहकाने
वाले खुशामदी उनके चारों तरफ न होते। वे बहकाते भी क्यों ना उनकी टुकराई जो
छिनी जा रही थी। फिर महाराज को तुम पर बड़ा घमंड था। अगर उन्हें यह विश्वास
होता कि एक जगह से ठुकराए जाने पर दूसरी जगह भी शिष्टाचार के बंधनों में
बंधना ही पड़ेगा तो वे मुझे संसार की आंखों में कृतघ्न बनाकर इस तरह न चले
जाते। मैंने सारी परिस्थितियों से तुम्हें परिचित करा दिया। अब मेरी लाज तथा अपनी
लाज तुम्हारे हाथ में है। मेरे अनुभवों से अगर तुम कुछ लाभ उठा सको तो मैं
अपनी इस प्रेरणा को सार्थक मानूंगी। आगे तुम्हारी मर्जी ! शेष सब बातें संदेशवाहक
की जुबानी जान लेना।
तुम्हारी हितैषिणी वहन
गोनरिल






इस खत को झटपट एक लिफाफे में बंद करके गोनरिल ने एक संदेशवाहक को बुलाकर कहा-"जाओ, घुड़साल में से तीव्र से तीव्र चलने वाला घोड़ा चुन लो तथा अभी जाकर यह पत्र राजकुमारी रीगन के पास पहुंचा आओ। महाराज के पहुंचने से पहले ही यह खत वहां पहुंच जाना चाहिए। जाओ, अब जरा भी देरी मत करो। कान सिद्ध होने पर तुम्हें बहुत पुरस्कार देकर खुश करूंगी।"

संयोग की बात कि जिस वक्त गोनरिल का संदेशवाहक महल में पहुंचा, ठीक उसी वक्त महाराज लियर का पत्र लेकर कायस भी रीगन के महल में पहुंचा। इस खत में राजा ने रीगन को सूचित किया था कि वह उससे मिलने के लिए आ रहा है तथा वह स्वागत के लिए तैयार रहे। कायस को यह पहचानते देर न लगी थी कि यह वहीं
था, जिसे उसने एक बार राजा का अपमान करने की वजह से नाली में पटक था। 

इस मौके पर उसे वहां देखकर वह यह भी समझ गया कि किस विचार से यह जहाँ नौकर आया है। उसे देखते ही देखते कायस की त्यौरियां चढ़ गईं तथा उसने धूसों तथा जूतो की मार से उसकी खूब मरम्मत की। जब यह संदेश रीगन के पास पहुंचा तो उसने कायस के हाथ-पैर बंधवाकर उसे कटघरे में बंदी बना दिया।

इतने में राजा की सवारी भी वहां आ पहुंची। आंगन में पैर रखते ही राजा ने सबसे पहला दृश्य जो देखा, वह अपने प्यारे सेवक के हाथ-पांवों में बेड़ियां जकड़ी देखीं। उसके लिए यह पहला अपशकुन था। कहां तो वह भारी स्वागत की उम्मीद में यहां आया था तथा कहां द्वार पर एक नौकर को भी न पाया। परिस्थिति को भांपते राजा को
देर न लगी थी। 

फिर भी उसने साहस करके द्वारपाल से कहा- "राजकुमारी कहां है?"

उत्तर मिला कि इस वक्त राजकुमारी अपने शयनगृह में आराम कर रही हैं और प्रात:काल से पहले न मिल सकेंगी।
यह सुनकर गुस्से के मारे राजा की आंखों से चिंगारियां निकलने लगी और उसने होंठ फड़फड़ाते हुए कहा- "इतनी निर्लज्जता ! जिस पिता ने अपने सिर का मुकुट उतारकर तुम्हारे माथे पर रखा, उसी के लिए इतना तिरस्कार। ऐसी बेटियों के..."अभी ये शब्द राजा के मुंह में ही थे कि उसकी नजर प्रवेश द्वार पर पड़ी और क्या देखता है कि स्वयं गोनरिल आंगन का फाटक पार करके रीगन के महल की तरफ तेजी से बढ़ी जा रही है। 

उसे देखकर राजा काठ के पुतले की भांति वहीं का वहीं खड़ा रह गया। सहसा रीगन महल से निकली तथा राजा को वहीं खड़ा छोड़कर गोनरिल के हाथ में हाथ डालकर उसे अंदर ले गई।

अब राजा से न रहा गया। उसके होंठों से निकल पड़ा- "गोनरिल! क्या मेरी सफेद दाढ़ी तथा बुढ़ापे का भी तुझे कुछ लिहाज नहीं और तू यहां भी..."

रीगन नागिन की भांति तड़पकर पीछे की ओर घूमी और राजा की बात खत्म होने से पहले ही बोली-"उसे आपका लिहाज है और हमेशा वह करेगी भी...किंतु एक शर्त पर। पहले आप अपनी मनमानी के लिए उससे माफी मांगें और भविष्य में इसकी आज्ञा में रहने की प्रतिज्ञा करें। अब वह मालिक है, मल्लिका है और आपकी संरक्षिका
है। अगर उसकी इजाजत में रहना आपको स्वीकार हो तो आप अब भी उसके साथ उसके महल में लौट जाइए। इसमें उसे कोई परेशानी न होगी।'

राजा ने एक कातर दृष्टि अपने जर्जर शरीर पर डाली और दूसरी रीगन के गर्वोन्मत्त मस्तक की तरफ... और कुछ सहमे स्वर में बोला-"और अगर मैं गोनरिल के पास न रहकर तुम्हारे पास रहना चाहूं तो...?"

रीगन के पास मानो जवाब पहले से ही गड़ा हुआ तैयार था। वह फौरन बोली-"तो आपको मेरी आज्ञा में रहना होगा और उसी शर्त पर।" 

यह सुनकर राजा की आंखों के समक्ष अंधेरा छा गया और वह गिरते-गिरते बचा। अब उसे कोर्डीलिया की याद आई और वह पागलों की भांति आकाश की ओर देखकर बड़बड़ाने लगा- 'कोर्डीलिया ! मेरी लाड़ली कोर्डीलिया! नहीं, वह मुझे माफ न करेगी। 

मैंने उसके सरल स्नेह को न पहचाना। मैंने उसके कोमल मन को खुशामद के पांवों तले रौंद डाला। तब मैंने जरा भी न सोचा कि वह मुझे कितना चाहती है। मुझे जरा भी उदास देखकर उसका फूल-सा मुखड़ा कुम्हला जाता था तथा वह घंटों "मेरे सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मेरे सिर को सहलाते हुए पूछती
भी पिताजी ! बोलते क्यों नहीं, कहां दर्द हो रहा है? मुझे बताओ, नहीं तो मैं रो पड़ेगी। कितना रस था उसकी वाणी में। उसके कोमल अहसास से मेरा रोम-रोम खिल जाता था और मैं उसकी मीठी-मीठी
बातों में ऐसे खो जाता था कि समझो स्वप्नलोक में विचरण कर रहा हूं। मुझसे विदा होते वक्त उसने कितनी कातर दृष्टि से मेरी ओर देखा था, जैसे कि घायल कबूतरी शिकारी की तरफ देखती है। हाय ! उस समय मेरा हृदय
क्यों न फट गया। मेरी जुबान क्यों न जल गई, जो मैंने उस निरपराधिनी को देश से निकल जाने की आज्ञा दे दी। हाय! अब मैं कोर्डीलिया को फिर कैसे पाऊं? मुझे निश्चय है कि अगर वह मुझे इस हालत में रोते देख ले तो अपना सारा तिरस्कार, अपनी सारी विपत्तियां तथा मेरे सारे अपराध भूलकर मेरे गले से चिपट जाए तथा गर्म आंसुओं की धारा से मेरे हृदय के दुख को धो डाले।'

इधर राजा की आंखों से आंसुओं की वर्षा हो रही थी, उधर आसमान में सहसा घनघोर घटाएं घिर आई। क्षण-भर में तूफान व बादल गरजने लगे, बिजलियां कड़कने लगी तथा आसमान कटकर जमीन पर उतरने लगा। चिड़ियां घोंसलों में छिप गईं और मकानों के कुत्ते-बिल्लियां भी सिमटकर कोनों में जा बैठे। 

अगर कोई खुले आकाश तले खड़ा था तो वह था राजा लियर।वही लियर, जिस पर छत्र तानने के लिए कुछ ही
दिनों पहले सहस्रों हाथ आगे बढ़ते थे तथा जिस पर चंवर डुलाने में लाखों अमीर अपना अहो भाग्य समझते थे, आज वही लियर नंगे आसमान के तले खड़ा है और उसकी तरफ कोई देखता नहीं। 

हाय कृतघ्नता। शोक की अंतिम हद तक पहुंच जाने पर मनुष्य का विवेक जाता रहता है। लियर भी पागलों की भांति यह बड़बड़ाता हुआ तूफान में कूद पड़ा—'आंधियो ! तूफानो! आओ तथा घिर-घिरकर आओ। तूफानो! बहो और इतने वेग से बहो कि यह आसमान और धरती हिल जाए। घटाओ! बरसो तथा इतनी जोर से बरसो कि जमाने का पाप तुम्हारी लहरों में समा जाए। संसार से मानव और कृतघ्नता का नाम सदा के लिए मिटा दो।"

तूफानों को चीरता हुआ राजा अंधेरे में खो गया। 

"महाराज! महाराज!" चिल्लाते हुए कायस तथा शेखचिल्ली उसके पीछे भागे।

राजा झाड़-झंखाड़ों, पत्थर-चट्टानों को लांघता हुआ बीहड़ जंगल में जा ही रहा था

कि सहसा कायस ने पीछे से पहुंचकर उसके कंधे पर हाथ रखा तथा बड़ी कठिनाई से उसे।
। एक गुफा की ओट में चलने के लिए राजी किया। ज्यों ही शेखचिल्ली ने पहले गुफा में झांका तो भूत ! भूत!' कहकर पीछे की तरफ भागा। वास्तव में वह भूत नहीं शायद कोई फकीर, मस्ताना अथवा पागला उसका पेट सिकुड़कर पीठ से जा लगाया था अपितु कोई किस्मत का मारा आंधी से बचने के लिए इस गुफा में जा छिपा था।
तथा मुंह पर मुर्दानगी छाई हुई थी। तन ढकने को सिवाय एक चिथड़े के उसके पास एक
वस्त्र तक न था। 

राजा ने उसकी यह दयनीय हालत देखकर हाथ पसारकर उस फकीर को गले से लगाने की कोशिश की और कहा "दिखता है तुम भी किसी की कृतघ्नता के शिकार हुए हो, नहीं तो कृतघ्न की चोट खाए बगैर कोई भी व्यक्ति इस
दीन हालत को प्राप्त नहीं हो सकता।"

यह बात सुनकर कायस को यह समझाने में समय न लगा कि राजकुमारियों के दुर्व्यवहार ने राजा को पागल बना दिया है। कायस ने अब देर करना सही न समझा और थोड़ी देर के लिए राजा को शेखचिल्ली के हवाले करके खुद नगर की तरफ गया और दूसरे दिन पौ फटने से पहले ही पहले राजा के पुराने अनुचरों में से कुछ ऐसों को साथ लेकर आया, जो अब भी राजा के लिए जान देने को उद्यत थे। 

उसी जंगल में 'डोबर' नाम का एक पुराना किला था। उन अनुचरों के साथ कायस ने राजा को उसी किले में पहुंचा दिया तथा उनकी सेवा सुश्रूषा का भार उन्हीं लोगों पर छोड़कर जल्दी से जल्दी कोडीलिया के पास फ्रांस जा पहुंचा। 

वहां जाकर उसने कोडीलिया को राजा की सारी रामकहानी कह सुनाई। राजा की इस दुरास्था को सुनकर उसकी आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे थे।

उसने अपने पति की अनुमति से उसी समय एक बड़ी सी सेना तैयार की तथा उन कृतघ्न राजकुमारियों के दमन के लिए इंग्लैंड को रवाना हो गई। उधर कायस जिन संरक्षकों को राजा की देखभाल का कार्य सौंप आया था, उनकी
आंख बचाकर राजा किसी तरह किले से भाग निकला था। जब कोर्डीलिया इंग्लैंड पहुंची तो डोबर की ओर आते हुए उसके सैनिकों ने राजा को आसपास के खेतों में पागलों की भांति चक्कर काटते हुए देख लिया। 

उसने जंगली घास का एक मुकुट बनाकर सिर पर पहन रखा था तथा झाड़ियों और पेड़ पौधों को संबोधित करते हुए कह रहा था-"राजा मैं हूँ, राजा मैं हूं।"

अपने प्रिय पिता को इस विक्षिस हालत में देखकर कोर्डीलिया का हृदय टुकड़े टुकड़े हो गया।

उसने अपने वैद्यों को बुलाकर कहा "है कोई तुम में ऐसा, जो एक बार, सिर्फ एक बार मेरे पिता को इतना होश में लाए कि वह मुझे पहचान सकें। इस उपकार के लिए, मैं तुम्हें सारे आभूषण तथा सारे हीरे जवाहरात को तैयार हूं।"

वैद्यों ने अपनी सारी हिकमत तथा सारी योग्यता राजा के उपचार में लगा दी। कोडीलिया की सहानभूति ने औषधि से भी बढ़कर कार्य किया। उसका प्रेमपूर्ण व्यवहार पाकर राजा का विवेक फिर से लौट आया तथा तब कोर्डीलिया उससे मिलने के लिए गई। 

पिता और बेटी का यह मिलन देखने लायक था। राजकुमारी पिता के सीने से लिपटी बार बार उसे आश्वासन देने की कोशिश कर रही थी और राजा अपने आंसुओं की धारा से उसे नहला रहा था, जिसने इस दृश्य को देखा, उसी की आँखें 'डबडला आहे। 

इधर से दो पवित्र हदय एक दूसरे पर न्यौछावर हो जाने को तैयार थे, उधर इंग्लैंड के दरबार में एक नया ही कारनामा उपस्थित हो रहा था।

इंग्लैंड के एक पड़ोसी राज्य में एक बहुत बड़ा विलासी वजीर रहता था, जिसका नाम एडमंड था। वह जितना रूपवान था, आदत से उतना ही कुटिल भी था। पिता का देहांत हो जाने पर उसने राज्य के लोभ में अपने बड़े भाई की हत्या कर दी और खुद सिंहासन का स्वामी बन बैठा था। 

संयोगवश वह अभी कुंवारा था। एडमंड के रूप को तारीफ गोनरिल और रीगन के कानों तक पहुंच चुकी थी। दोनों बहनों ने कोर्डीलिया को सेना सहित राजा की मदद के लिए आया सुनकर एक बहुत बड़ी सेना तैयार की
और उसे ग्लौसेस्टर के नेतृत्व में कोर्डीलिया का सामना करने के लिए डोबर की ओर भेजा। 

इसी बीच सहसा मंझली राजकुमारी रीगन के पति राजकुमार कार्नवाल की मौत हो गई। अब उसे अपना प्रेम प्रकट करने का उचित मौका मिल गया और उसने तत्काल ही एडमंड से अपना ब्याह रचाने की घोषणा कर दी। बड़ी राजकुमारी गोनरिल ने यह सुना तो डाह के मारे उसकी छाती पर सांप लौटने लगे। 

पिता के पश्चात अपने पति का प्रेम भी वह ठुकरा चुकी थी और अब इस बिगड़े अमीर एडमंड को अपने प्रेमपाश में बांधना चाहती थी। उसकी इस राह में अगर कोई बाधा थी तो वह थी उसकी छोटी बहन रीगन। गोनरिल ने उसे जहर देकर अपना मार्ग निष्कंटक बना लेना चाहा।

उसने रीगन को जहर दे दिया। उधर एडमंड के साथ उसकी गुप्त प्रेम कहानी तथा रीगन की हत्या का समाचार गोनरिल के पति को मिल गया। इन दोनों अपराधों के कारण उसने गोनरिल को कारागार में बंद कर दिया, जहां उसने अपने गले में फांसी लगा ली। 

इस तरह एक प्रात:काल रीगन ने तड़प-तड़पकर प्राण दे दिए तथा दूसरे सायंकाल गोनरिल ने अपने जीवन का अंत कर लिया। विधि के विधान के मुताबिक दोनों राजकुमारियों ने अपनी-अपनी कृतघ्नता का फल पाया तथा राजा लियर के संतृप्त हृदय से निकली आह सत्य सिद्ध हुई।

उधर ग्लौसेस्टर को सेना सहित आते सुनकर कोर्डीलिया उससे लड़ने के लिए खुद युद्ध क्षेत्र में आ उपस्थित हुई। कहां भोली-भाली कोर्डीलिया, कहां वह धूर्त ग्लौसेस्टर। कोर्डीलिया उसकी कुटिल चालों को न समझ सकी तथा एक अंधियारी रात में सोते-सोते बंदी बना ली गई। वहीं उसने बाप की मंगल कामना करते हुए अपने प्राण त्याग दिए।

राजा ने एक कान से उन कृतघ्न राजकुमारियों का अंत सुना तथा दूसरे कान से इस पितृवत्सला कोर्डीलिया का बलिदान। इतने बड़े आघात को राजा का कोमल मन सहन न कर पाया तथा अपनी लाड़ली पुत्री कोर्डीलिया का नाम पुकारते-पुकारते उसने भी अपने प्राण त्याग दिए। कहते हैं कि उन दोनों की एक वक्त, एक घड़ी और एक
स्थान पर अंत्येष्टि की गई।

ईश्वर के घर में देर भले ही हो किंतु अंधेरा नहीं होता। दुराचारी ग्लौसेस्टर का सितारा चमक उठा था, मगर अधिक देर के लिए नहीं। बुझती दीपशिखा की तरह वह एक बार ही चमककर बुझ गया।

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