इस कहानी के लेखक लायम मेटिल्ड सेराओ हैं। कहानी को शुरू करते है ।
जिस रमणी को निम्नलिखित चिट्ठियाँ लिखी गई थीं और जिसने मुझे ये चिट्ठियाँ दे दी थीं कि जिससे उसके चित्त से अन्तिम कड़वी स्मृति भी दूर हो जाए, वह अभी तक जीवित है, पर अब वह बहुत दूर पर है और विस्मृत है।
वर्षों बीत गए हैं जब तूफ़ानों ने उनका हृदय आलोड़ित किया था, वर्षों बीत गए हैं, जब वह शान्त जल में आ पहुँची है।
वर्षों से वह प्रेम की चाह नहीं रखती है। और अगर ये चिट्ठियाँ, जो मैं प्रकाशित कर रहा हूँ, उसकी नज़र में पड़ जाएँ, तो शायद इन्हें वह पहचानेगी भी नहीं, क्योंकि प्रेम इतना क्षणिक है और जीवन इतना दीर्घ है। चिट्ठियाँ इस प्रकार हैं-
20 जून
प्रिय मित्र,
यह बहुत आश्चर्य की बात है कि मैं क्यों आपको पत्र लिख रहा हूँ! मैंने इससे पहले कभी भी किसी स्त्री को पत्र नहीं लिखा है, किसी के उद्देश्य में कविता की रचना नहीं की है! पर पिछली रात्रि को मैंने आपके उद्देश्य में एक कविता लिखी थी और आज सुबह ही उसे फाड़ डाला है! और अब शाम को आपको पत्र लिख रहा हूँ।
यह सब कुछ मेरी समझ में नहीं आ रहा है। कदाचित् मैं किसी रहस्यमय रोग से ग्रस्त हो गया हूँ, या मुझमें लड़कपन आ गया।
लेकिन तीस साल की उम्र में लड़कपन आ जाना लज्जा की बात है, जबकि दृढ़ चित्त, गम्भीर और बुद्धिमान होने का मुझे यश है, और मैं अपना यश खोने का साहस नहीं करता।
शायद आप हँस रही होंगी, और यही ख्याल मुझे और अधिक दुखित कर रहा है। यह सच है कि आप सदा हँसती हैं, मैंने कभी भी आपको मुस्कराते नहीं देखा।
कितनी सुन्दर है आपकी हँसी! आपकी आँखें, कपोल, ललाट, होंठ, दाँत सब उस मनोहर हँसी में शामिल होकर आनन्द की झड़ी बरसा देते हैं।
क्या कुछ भी आपको दुखित नहीं कर सकता है, जो आप प्रत्येक बात पर हँसती हैं? मुझसे कह दीजिए, मैं फ़ौरन जाकर वह चीज ले आऊँगा, केवल आपको उदास देखने के लिए।
मेरे विचार में आप कभी सोचती नहीं होगी, जैसे आप कभी मुस्कराती नहीं हैं।
आपका पोस्ट-कार्ड इतना सुगन्धित और छोटा है, नन्हे-नन्हे चटकीले, उज्ज्वल और जोरदार वाक्यों से इतना जीवनमय और विनोदपूर्ण है! पर ठीक एक कोने में एक शब्द विशेष भाव से ध्यान खींचता है, सुरीला और दुलारा, वह शब्द है ‘स्वप्न'...मेरी महिला, क्या आप कभी स्वप्न देखती हैं?
मैं सदा ही स्वप्न देखता हूँ, मैं जैसा चाहूँ वैसा स्वप्न देखता हूँ, और वह आश्चर्यजनक सुन्दर होने के साथ आश्चर्यजनक उदास होता है।
मैं यह सोचना चाहता हूँ कि स्वप्न कुछ दैवयुक्त होता है, और स्वप्न में अपनी इच्छाशक्ति आधीन हो जाती है।
आप क्या स्वप्न देखती हैं? मैं आप से यह बेहूदा प्रश्न इसलिए कर रहा हूँ कि आप इसका कोई उत्तर न दें। मैं बिलकुल ही पसन्द नहीं करूँगा, अगर आप मुझे बताएं कि आप क्या स्वप्न देखती हैं, मुझे पता नहीं कि मैं क्या करूँगा, अगर आप मुझे बताएँ।
मैं मानता हूँ, मेरी महिला, कि मैं आशंकित हूँ। आपसे कह नहीं सकता कि मैं क्यों शंकित हूँ। पर यह अज्ञात भय और भी अधिक डरावना है, इसलिए कि यह अज्ञात है।
तब अवश्य ही आप मुझे निर्भय कीजिए। अपने भविष्य के बारे में कहिए...नहीं, नहीं, यह भी ख़तरनाक है; तब अतीत के बारे में।
आप बहुत ही साधारण भाव से चली गईं। मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि आप बहुत ही शीघ्र चली गईं। आपसे मुझे बहुत ही आवश्यक बातें करनी थीं।
यद्यपि आप दो दिन और ठहर जातीं, तो भी शायद मैं ये सब बातें आप से नहीं कहता, और आपसे कहना चाहता, जैसा कि मैं अब भी चाह रहा हूँ।
उस दिन सोमवार था। सप्ताह के प्रारम्भ में किसी को कहीं जाना नहीं चाहिए, लेकिन आप अगर ठहर कर शनिवार को भी जातीं, तो मैं कहता कि सप्ताह के अन्त में किसी को कहीं जाना नहीं चाहिए।
आप काली पोशाक पहने हुए थीं। क्या आप किसी के लिए या किसी बात के लिए शोक मना रही थीं? मेरी महिला, अपने हृदय के क़ब्रिस्तान में दफ़नाए हुए मृतकों के नाम मुझसे कहिए! भोर का समय था; आपको स्मरण है? भूरा प्रभात था, तुम और निद्रित शहर की भाँति ही भूरा।
हम लोग कई आदमी आपको स्टेशन तक पहुँचाने गए थे, हम सब कुछ घबराए हुए से थे; बहुत सुबह था न! मुझे स्मरण है, आप हँस रही थीं।
फिर आपने सबसे हाथ मिलाया। जब मेरी बारी आई तब एक क्षण के लिए आप पटरी पर, मेरे हाथों में हाथ डाले, खड़ी रहीं।
मैं सड़क की ओर देख रहा था और आप ज़मीन की ओर। आपने फिसफिसा कर मुझसे कहा, “धन्यवाद!" आपने किस लिए मुझे धन्यवाद दिया था?
मैं उत्तर नहीं दे सका, क्योंकि प्रभात की वायु ने मेरे स्वर को दुर्बल और कम्पित कर दिया था। फिर आप रेल के डिब्बे में चढ़ गईं आपकी खिड़की के सामने हम लोग भीड़ करके खड़े रहे, रूमाल हिलाए और आपको जाते देखा।
नहीं, यह ग़लत है, मैंने आपको जाते नहीं देखा। भोर का समय था, मेरी आँखों के सामने कोहरा था। उस दिन मैंने क्या किया, मुझे पता नहीं।
लोग कहते हैं कि मैं विक्षिप्त-सा, उदास दृष्टि लिए घूमता रहा। मैं आपसे कह सकता हूँ कि मैं अपने पर बहुत लज्जित हो रहा था।
मुझे आपकी टोपी के हवा में फरफराते पंखों की क्षीण स्मृति है। आप क्यों मेरा रूमाल लेकर चली गई थीं? आपने लिखा और कहा है कि आपके न रहने से आपका नन्हा 'बिगोनिया' फूल का पौधा मर गया है...कदाचित् आपके न रहने के लिए! मैं इसके लिए दुखित हूँ।
विरह से एक 'बिगोनिया' की मृत्यु हो गई है। पर किसे इसकी परवाह है, दुख है किसी को भी नहीं। मैं सोचता हूँ कि कहीं फूलों का स्वर्ग है, तो ढेर से फूलों को भी नरक में जाना चाहिए, क्योंकि लोगों के द्वारा वे इतने पाप कराते हैं।
नरक कितना सुन्दर होगा! वहाँ के सब कुछ जल रहे हैं, पर खाक नहीं हो रहे हैं। आपको इस पत्र से पता चलेगा कि मैं कितना आनन्दित हूँ, वास्तव में मैं बहुत आनन्दित हूँ। सचमुच ही मैं सब समय विनोदपूर्ण हूँ। मेरे मित्रवर्ग कहते है।
पर मैं आपसे कुछ और अधिक और बहत गम्भीर बात लिखने की आज्ञा चाहता हैं कि मैं अतुलनीय हूँ। मेरी प्रिय महिला, मैंने ढेर-सा अक्षम्य कूड़ा-करकट लिख डाला हूँ।
या तो आप मेरी सब धृष्टता क्षमा कर देंगी या आप मुझे क्षमा नहीं करेंगी। मैं एक पातकी हूँ। मैं एक शिशु भी हूँ-एक शिशु तुतला रहा है, काँप रहा है और प्रार्थना कर रहा है...
--लुसियानो
पु -आप नहाने के लिए, लेगहान में आ रही हैं? बिना किसी के साथ?
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10 सितम्बर
प्रिय मित्र,
मेरी सतानेवाली, मेरी मिट्ट, मेरी तामसी शेरनी, मेरी काले नयनवाली हिरनी, मेरी पीड़नकारिणी, मेरी प्रेम की सजीव मूर्ति!
मुझे शीघ्र लिखो, शीघ्र, और कहो कि तुम मुझसे प्रेम करती हो और कहो कि मैं तुम्हारा लुसियानो हूँ।
मुझसे प्रेम करती हो, यह कहने के लिए एक 'तार' भेजो। मेरी काली आँखोंवाली, तुम्हें देखे दो दिन हो गए हैं, तुम्हें अन्तिम बार देखे दो दिन बीत गए हैं।
इतने समय तक तुम्हें नहीं देखा है, यह सोचने से मुझे क्रोध और अधीरता होती है, और कल शाम तक तुम्हें नहीं देख पाऊँगा। मुझे ज्वर-सा हो गया है, मैं अब सदा ही ज्वर से पीड़ित-सा हूँ।
और तुम्हीं मेरा ज्वर हो! हा परमात्मा! प्रेम भी कैसी अजीब चीज़ है! मेरी छाती में जाने कैसा एक अनुभव हो रहा है, बिलकुल यहाँ मांस के भीतर जैसे मेरे भीतर एक अंगूर की बेल उगती हुई ऊपर, खूब ऊपर को उठकर फिर नीचे, फिर दाहिने, फिर बाएँ फैलकर मेरी सारी सत्ता को कुतर रही है।
और फिर मैं नए से जन्म लेता हूँ, एक क्षण के बाद फिर से अजियत और टुकड़े-टुकड़े होने के लिए और मेरे सिर में यहाँ माथे के भीतर, मैं अनुभव कर सकता हूँ कि एक छोटी-सी कील चुभ रही है बड़े ही सुहावने भाव से।
मैं अपने अनिद्रा-रोग के लिए 'क्लोरल' दवा खाता हूँ। 'क्लोरल' से मुझे बहुत फ़ायदा होता है, पर फिर भी तुम्हारे चुम्बनों को मैं अधिक चाहता हूँ।
मैं उन्हें अधिक पसन्द करता हूँ, वास्तव में मैं बहुत अधिक पसन्द करता हूँ! लिलिया, मेरी कमलिनी, मैं डूब गया हूँ। मैं वास्तविकता के बाहर कूद पड़ा हूँ, पता नहीं, जाने कैसे! तुम से, तुम्हारी आत्मा से, तुम्हारी देह से, तुम्हारे नाम से मैं अपना जीवन हासिल करता हूँ।
काम काज की अनन्त घुमेरी से मैं घिरा हुआ हूँ, मैं सुन पाता हूँ कि मित्रवर्ग मुझसे बोल रहे हैं, और मैं लोगों से हाथ मिलाता हूँ...पर यह सब मुझे पिली छाया की झलमल-सा, एक अस्पष्ट मर्मर ध्वनि-सी या एक प्रेम-रूपी चित्र-सा लगता है, जैसी 'हफ़मैन' (जर्मनी के डरावने कहानी-लेखक) ने कल्पना की थी।
और केवल मधुर, कोमल, रंगीन, सुगन्धित, झंकृत, ऊँचा, मतवाला, कम्पित स्वर है प्रेम! लिलिया, मैं डूब गया! हम दोनों ही होशो-हवास खो चुके हैं, मेरी देवी! सूर्य चमकता है, पर उससे कोई लाभ नहीं है, और आज रात को तारे चमकेंगे, पर उनसे भी कोई फल नहीं होगा, क्योंकि न तुम तारों में हो और न सूर्य में।
मैं मर रहा हूँ, प्रियतमे! मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, तुम मेरी रक्षा करो। तुम्हीं मेरी सब कुछ हो, तुम्हीं मेरे जीवन का सुख हो, तुम्हीं मेरा धर्म हो, तुम्हीं तीर्थ हो, तुम्हीं मेरा स्वर्ग हो। आओ जी, आओ, मुझे मरने न दो! आह, यह प्रेम कैसी भयानक चीज़ है! भयंकर लगता है जब मैं एक क्षण के लिए एकान्त होता हूँ और सोचता हूँ कि वास्तव में मैं क्या हूँ।
विपद की अस्वस्थ अभिलाषा से मेरा विवेक भक्षित होता है, कूद पड़ने की एक उन्मादकारी इच्छा से मैं घिर जाता हूँ।
यह है वासना! लिलिया, मेरी लिलिया! मेरी, मेरी मेरी! तुम्हारा पत्र वास्तव में ही तुम्हारा हिस्सा है, वह मैं पूरा रट गया हूँ। वह मेरे हृदय अंकित है, वह मेरे हृदय को जला रहा है।
तुम मुझे कभी इस तरह न लिखो, तुम अपने इस तरह के पत्रों से मुझे पागल न करो। तुम्हारी चिट्ठियाँ आग की तरह होती हैं।
तुम मुझे बर्फ़ दो, बर्फ़ दो...मैं जल रहा हूँ। ओह, शान्त हो जाओ, मुझ पर कृपा करो! मेरे प्रेम को अपने आप जल जाने दो, अपनी आग से मुझे ध्वंस न करो।
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